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इसका अनुसरण किया है । तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार धारणा के तीन रूप है प्रतिपत्ति, मत्यवस्थान एवं अवधारण । अत: धारणा उपयोग का वह परिपाकांश है जिसमें अवेत अंश के उपयुक्त और अनुपयुक्त दोनों अवस्थाओं का सन्निवेश हो जाता है । सिद्धसेनगणि ने प्रस्तुत प्रसंग में इन तीनों अवस्थाओं की विस्तृत व्याख्या की है। उनके अनुसार धारणा की प्रथम अवस्था प्रतिपत्ति है । जिसमें अवेत अर्थ (निर्णीत विषय) निरन्तर उपयोग में रहता है । उपयोग से च्युत होने के बाद निर्णीत अर्थ का शक्ति के रूप में अवस्थित रहना मत्यवस्थान है । और कालांतर में उसी का अवलम्बन लेकर ज्ञान का उदय होना अवधारण है । प्रतिपत्ति की तुलना विशेषावश्यक भाष्यगत अविच्युति तथा नन्दीसूत्रगत धारणा से की जा सकती है।
स्वामी वीरसेन एवं मलयगिरि के अनुसार अवेत अर्थ को कालांतर में न भूलने का कारणभूत ज्ञान धारणा है। कलिकाल मर्वज्ञ हेमचन्द्र ने धारणा को स्मृति का हेतु (परिणामी का रण) बताते हुए क्षमाश्रमण के मत की समीक्षा की है। उनके अनुसार अविच्युति वस्तुतः दीर्घतर अवाय ही है अत: वह अवाय से भिन्न नहीं। और स्मृति परोक्ष प्रमाण होने से धारणा नहीं हो सकती क्योंकि धारणा सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष है । इन सब परिभाषाओं के आधार पर धारणा के निम्नांकित लक्षण प्रकट होते
० धारणा आभिनि बोधिक ज्ञान का अंतिम चरण है। ० इसमें वस्तुतः कोई नया ज्ञान नहीं होता, वल्कि ज्ञात या निर्णीत अंश का
अवधारण किया जाता है। ० धारणा में इंद्रियों की भूमिका गौण और मस्तिष्क की भूमिका प्रमुख
होती है। मनोविज्ञान के अनुसार यह एक जटिल मंरचनात्मक प्रक्रिया
० धारणा अवाय के बाद होने वाली ज्ञातांश की परिपक्वता होने के कारण
मांव्यावहारिक प्रत्यक्ष है जोर स्मृति-परोक्ष प्रमाण का कारणांश भी है अत:
इसे दोनों प्रमाणों का सेन या मीमांत कहा जा सकता है। धारणा का कालमान
नियुक्ति एवं नन्दी में धारणा का काल-असंख्यात और संख्यात काल बताया गया है । इस विषय में उन्होंने धारणा की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की पृथक् विवक्षा नहीं की । सामान्यतः देखा जाता है कि जब किसी बात को सीखा जाता है, किसी तथ्य को ग्रहण किया जाता है तो वह एक बार अवगृहीत हो जाता है लेकिन चेतन मन में उसकी अवस्थिति सुदीर्घ नहीं होती । जब कोई निमित्त मिलता है तव उसके संस्कार पुनः अवबुद्ध हो जाते हैं । यह इस तथ्य का सूचक है कि वह चेतन मन में व्यक्त रूप में अवस्थित नहीं थी, किन्तु उसकी अवचेतन या अचेतन मन में उपस्थिति अवश्य थी। चेतन मन में अवस्थिति को जैन पारिभाषिकी के अनुसार उपयोग अवस्था एवं सुषुप्त संस्कारों को अनुपयोग अवस्था के रूप में समझा जा सकता है । ज्ञात अर्थ की इन विभिन्न चैतसिक अवस्थाओं के आधार पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने नियुक्तिगाथा
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तुलसी प्रज्ञा
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