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टिप्पणी एवं संदर्भ * प्रस्तुत लेख में लेखक ने 'पंचांगुलाक' की लोकरून परम्परा का ब्यौरा दिया है
और मानव-जीवन से उसके तादात्म्य को उजागर किया है। इस सम्बंध में उन्होंने राजस्थान के पांच पीरों में गोगापीर, सिक्खों के पंजा साहब और मुसलमानों की पंचतन तथा सती-स्तंभों के हाथा को भी याद किया है।
राजस्थान में पंचपीरों में, गोगा मेड़ी के गोगा चौहान के बाद रामदेवरा के रामदेव तंवर की बड़ी मान्यता है और उनकी मजार पर प्रतिवर्ष लाखों लोग जिनमें मुसलमान 'अलम' लेकर और हिन्दू आदि यात्रा-संघ 'रामदेव पताकाएं' लेकर पैदल जाते हैं और धोक लगाते हैं। मजार के बाहर महिलाएं अपने हाथ भी मांडती हैं।
बीकानेर में एक पंच-मंदिर या पंचायतन मंदिर है जहां पांच देवताओं की पूजा होती है । सती-स्तंभों पर पंचांगुलांक नहीं बनता किन्तु जैसे विवाह बाद वधू की विदाई पर वह पीहर में दोनों हाथों की छापे मांड जाती है वैसे ही सती होने वाली महिला भी अपने ससुराल में दोनों हाथों की छापें लगाकर घर से बाहर जाती है । इस प्रकार यह बहिर्गमन पर स्मृति रूप होता है।
जोधपूर के बाला गांव की सती जो दिनांक १५-२-४३ से १५-११-८६ तक, ४३ वर्ष भूख-प्यास, निद्रा एवं मलमूत्र-विसर्जन आदि नैसर्गिक वृत्तियों का निरोध करने में समर्थ रही उसके संबंध में कहा गया है कि उसे जब एक पुराने घर में ले जाया गया और वहां किसी सती के हाथ का दर्शन कराया गया तो उसने कहायह तो ठीक है परन्तु वाकी तीन हाथों की छापें कहां हैं ? बाद में शेष तीन छापें (पंचांगुलांक) भी मिल गई जो उन्हीं की बताई गई। अर्थात् वे ही उस घर से बाहर सती होने को गई तो उन्होंने दो के स्थान पर चार (दोनों हाथों की दो, दो) छापें लगाई थीं।
-प. सो., संपादक १. वासुदेवशरण अग्रवाल, कादम्बरी : सांस्कृतिक अध्ययन, वाराणसी १९७०, ५० ८४ २. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पटना १९६४, पृ०७२ ३. वही, प० ७० ४. महावंशटीका, ३२।३-५ (सं० एस० वी० सोहनी), पृ० ५४० ५. कनिंघम, स्तूप ऑव भरहुत, वाराणसी १९६२, फलक ३१/१; राष्ट्रीय संग्रहालय, __ नई दिल्ली, पुरातत्त्व वीथिका, प्रदर्श सं० ७२-३३१ ६. कनिंघम, उपरोक्त ३११४ ७. जे० एफ० फ्लीट, कार्पस इन्स्क्रिप्शन इण्डिकेरम, बाल्यूम ३, पृ० १४६; वासुदेव ___उपाध्याय, गुप्त अभिलेख, पटना १९७४, १० २२४ ८. मतकभत्तजातक, द्रष्टव्य राजकिशोर सिंह (सं.), अभिमव पालि-पाठावली,
लखनऊ १९७७-७८, पृ० ७५ ९. मृच्छकटिकम् १०१५ १०. वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, १० ३६ ३९४
तुलसी प्रज्ञा
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