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हाथ से हम सभी प्रकार के धर्म-कर्म करते हैं। हाथ से हम भोजन करते हैं, शौच करते हैं, लिखते-पढ़ते हैं, तैरते-नहाते हैं, नहरें-तालाब खोदते हैं, जंगल-पहाड़ काटकर मार्ग बनाते हैं, तीर-तलवार चलाते हैं, कृषि करते हैं, वस्त्राभूषण, शयनासन, घर-आंगन, अस्त्र-शस्त्र बनाते हैं, मन्दिर और मूर्तियां बनाते हैं, पूजा करते हैं, हृदय के उल्लास एवं अवसाद प्रकट करते हैं ।
स्पष्ट है कि जीवन-व्यापार के लिए हाथों का कितना महत्त्व है। जिस दिन चौपाया दो पैरों हर खड़ा हुआ और उसके दो अगले पैर हाथ बने उसी दिन से मानव सभ्यता विकास द्रुत गति से हुआ। हाथों के इसी महत्त्व के कारण कहावत बनी"अपना हाथ जगन्नाथ' अर्थात् 'अपना हाथ समस्त जगत् का स्वामी है।' संभवतः इसीलिए प्रातःस्मरण में सबसे पहले 'कर-दर्शन' की बात कही गई है--
__ कराग्रे वसति लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती
करमूले तु गोविन्द प्रभाते करदर्शनम् । भारतीय मनीषियों ने बहुत पहले ही हाथ या पञ्चाङ्गुल का महत्त्व जान लिया था। तभी उन्होंने हाथ के प्रतीक थापे या पञ्चाङ्गुलांक को अपने समूचे जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनाया था और जाने या अनजाने थापे की यह परंपरा भारतीय समाज में आज भी जीवित है।*
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तुलसी प्रज्ञा
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