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एवं भोक्तृत्व को आचारांग स्पष्ट रूप में स्वीकार करता है इसलिए वह गीता के समान ही आत्मा को अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अहन्य स्वीकारता है और पूर्वजन्म को भी ग्रहण करता है । पाश्चात्य दर्शन में स्वीकृत तीन मान्यताएं-(१) आत्मा की अमरता (२) इच्छा स्वातन्त्र्य और (३) ईश्वर के अस्तित्व में आचारांग प्रथम दो को स्वीकार करता है किन्तु नैतिक व्यवस्था के लिए ईश्वर के स्थान पर 'कर्म का नियम' स्वीकार करता है।
___इसी प्रकार के अनेक निष्कर्ष लेखिका ने दिए हैं। उनका एक निष्कर्ष है कि आचारांग ने त्रिविध साधना मार्ग बताया है जिसमें अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा है। ये बौद्ध धर्म के प्रज्ञा, शील और समाधि रूप त्रिविध साधना पथ के पुरोगामी है और उनके अनुसार ये ही कालान्तर में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र में विकसित हुए हैं । लेखिका का दूसरा निष्कर्ष यह है कि आचारांग को मुख्यत: निषेधारमक नैतिकता का प्रतिपादक माना जा सकता है किन्तु उसका अहिंसा -सिद्धान्त लोक पीड़ा के निवारणार्थ है इसलिए वे इसे विधेयात्मक रूप में भी देखती हैं।
___ सर्वांश में यह अध्ययन तुलना और समीक्षा के साथ भारतीय मनीषा की प्राचीनतम आचारनिष्ठा को आधुनिक सोच के अनुसार देखने का संभवतः प्रथम प्रयत्न है और हर्ष का विषय है कि लेखिका ने बिना लाग-लपेट के निर्णय लेने की कोशिश की है परन्तु कहीं भी आचारांग के उपदेश और उसकी रचना के मूल उद्देश्य को तिरोहित नहीं होने दिया है। इस अध्ययन में आचार नियमों का प्रतिपादन आध्यात्मिक विकास के मार्ग में अवरोधक खड़े नहीं करता हालांकि लेखिका ने नैतिक साध्य के रूप में सुख, विवेक और आत्मपूर्णता को मानदण्ड मानकर अपना अध्ययन किया है।
मूल्य कम है और साजसज्जा और मुद्रण अच्छा है। आशा है नई पीढ़ी में पुस्तक का प्रचार-प्रचार होगा।
४. आनन्दघन का रहस्यवाद, लेखिका-साध्वी सुदर्शनाश्री, प्रकाशक-पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान, आई० टी० आई रोड वाराणसी-५। मूल्य–पचास रुपये ।
प्रस्तुत प्रकाशन से मिली जानकारी के अनुसार इस कृति का प्रणयन पार्श्वनाथ विद्याश्रम के प्रांगण में रहकर हुआ है किन्तु साध्वीश्री द्वारा इसे प्रकाशित करने की अनुमति न देने पर भी इसे मुद्रित कर दिया गया। साध्वीश्री की दृष्टि से 'इसमें काफी सुधार की आवश्यकता है ।'
___ डॉ. सुदर्शनाश्री के अनुसार प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का मुख्य प्रयोजन है-आनन्दधन की उपलब्ध काव्य-कृतियों में निहित रहस्यवादी-प्रवृत्तियों की खोज करना । अतः स्तवनों या पदों की संख्या एवं उनकी प्रामाणिकता का प्रश्न हमारी विषय सीमा में नहीं आता।' अर्थात् वे इस अध्ययन को मुख्यतः आनन्दघनजी के नाम से मिलनेवाले पदों में रहस्यवाद की खोज तक सीमित रखना चाहती हैं। इस दृष्टि से ही इसमें रहस्यवाद का परिचय, आनन्दधन की विवेचन पद्धति, आनन्दघन के रहस्यवाद के दार्शनिक आधार, आनन्दघन का साधनात्मक एवं भावात्मक रहस्यवाद-जैसे
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तुलसी प्रमा
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