SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस संपादन में फुटनोट्स में संदर्भ सहित पाठान्तर दिए गए हैं और शब्दों में ध्वनि परिवर्तन का अध्ययन कर पं० बेचरदास दोशी और मुनि पुण्य विजयजी के निष्कर्ष अनुकूल वर्तमान में प्रकाशित हो रहे ध्वनि परिवर्तन को विकृति कहा है । शब्द रूपों की अनुक्रमणिका देकर जैन विश्व भारती, महावीर जैन विद्यालय, आगमोदय समिति, वाल्थेर शुब्रिंग तथा चन्द्रा के संस्करणों से उनकी तुलना दी गई है । इस प्रकार यह पुनः संपादन अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक और महत्त्वपूर्ण बन गया है । पं० दलसुख मालवणिया के शब्दों में कहा जा सकता है कि- "जैन आगमों की भाषा दुर्भाग्य से मात्र अर्धमागधी न रहकर महाराष्ट्री से अधिक प्रभावित हो गयी है ।" प्रो० एच० सी० भायाणी का यह निष्कर्ष भी ठीक है कि मूल अर्धमागधी का विकसित रूप हमें ( यत्किचित् ) अशोक के पूर्वी शिलालेखों की लिपियों में देखने को मिलता है । अन्यत्र नहीं । सर्वांश में कहा जा सकता है कि डॉ० चन्द्र ने अपनी शोध से जो मार्गदर्शक मानदण्ड बनाए हैं वे भगवान् महावीर की मूल भाषा तक पहुंचने के महत्त्वपूर्ण पड़ावों में शामिल हो गए हैं और हमें आशा करनी चाहिए कि यह यात्रा अब जारी रहेगी । ३. आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन, लेखिका - डॉ० प्रियदर्शनाश्री, प्रकाशक - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी एवं राज-राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, हाथीखाना, अहमदाबाद, प्रथम संस्करण - १९९५, मूल्य ८० /- रुपये । प्रस्तुत ग्रंथ, श्री अवधेश प्रतापसिंह विश्वविद्यालय, रींवा से पी-एच. डी. उपाधि के लिए स्वीकृत थीसिस हैं जो साध्वीश्री प्रिय दर्शनाजी ने डॉ० अखिलेश कुमार राय एवं डॉ० सागरमलजी जैन के मार्गदर्शन में लिखा है । इस ग्रंथ में पौर्वात्य एवं पाश्चात्य आचार दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में आचारांग का अध्ययन है । जैनधर्म मूलत: निवृत्ति प्रधान है। उसमें आचार के दो भाग -श्रमणाचार एवं गृहस्थाचार हैं किन्तु साध्वीश्री ने रेखांकित किया है कि आचारांग के दोनों श्रुत स्कन्धों में गृहस्थाचार का विवेचन नहीं है । उनके अनुसार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में अहिंसा, संयम, अप्रमत्तता आदि आचार के सिद्धान्त हैं और दूसरे श्रुतस्कन्ध में आचार के विभिन्न नियम- उपनियम । दूसरे श्रुतस्कंध में मुनि को किस प्रकार का आहार, वस्त्र, पात्र और निवास ग्रहण करने तथा साधु-साध्वियों के पारस्परिक और सामाजिक व्यवहार आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है । हिंसा का मूल कारण परिग्रह है । स्तेय वृति का कारण भी परिग्रह है और बिना ब्रह्मचर्य के सत्य का पालन अथवा अहिंसा की साधना नहीं हो सकती; इसलिए आनुषंगिक रूप में अहिंसा ही सर्वोपरि है । यही नैतिकता और अनैतिकता का मापक है । उसमें भावना और विवेक दोनों सम्मिलित हैं जो बौद्धिक भी हैं और भावनात्मक भी । यही कारण है कि जैन आचार, दर्शन का केन्द्र बिन्दु अहिंसा है । लेखिका का यह भी निष्कर्ष है कि आत्मा की अमरता और आत्मा के कर्तृत्व खण्ड २३, अंक ४ ५०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy