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________________ प्राचीन भारत में परिवाजिकायें रतनलाल मिश्र प्राचीन भारत में चतुराश्रम व्यवस्था का प्रचलन था। संपूर्ण मानव जीवन चार भागों में विभाजित था। ये भाग ब्रह्मचर्य, गहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास थे । उपनिषद काल में विशेषकर अति प्राचीन उपनिषदों के काल में, सन्यास आश्रम को प्रश्रय नहीं दिया गया। महाभारत में सन्यास आश्रम की स्पष्ट रूप से निन्दा की गयी है तथा इसे नास्तिक धर्म बताया गया है। सन्यास धारण करने के अनेक कारणों में संसार से विराग, वार्द्धक्य, जीवन का दुःख, प्रतिकूल गृहस्थ व्यवस्था, भावावेश, बढ़ी हुयी धर्म भावना और मुक्ति की कामना आदि अनेक कारण होते थे। स्त्रियों के कारणों में पति की मृत्यु, संसार से वैराग्य, निराश्रयता, मुक्ति कामना आदि प्रमुख कारण थे। कई बार पति के सन्यासी होने पर पत्नी भी सन्यास ग्रहण कर लेती थी। प्राचीन काल में सन्यास ग्रहण करने वाली अनेकों परिवाजिकाओं की बात ज्ञात है । ब्राह्मण परिव्राजिकायें या सन्यासिनियों की संख्या यद्यपि सन्यासियों के समक्ष कम थी तथापि प्राचीन धार्मिक साहित्य में बराबर उनके नाम मिलते हैं। ऐसी परिव्राजिकाओं का समाज के विभिन्न वर्गों में बड़ा मान सम्मान प्राप्त था तथा उन्हें दैवी गुणों से युक्त मानकर उचित आदर दिया जाता था। प्राचीन ग्रन्थों में विष्णु धर्मपुराण (३६१७) ममुस्मृत्ति (८।३६३) नारद स्मृति (१२।७४) आदि में परिव्राजिकाओं के उल्लेख मिलते हैं। बुहलर ने रक्षसा और शिलामित्र जैसी तापसियों का उल्लेख किया है। पाणिनि का श्रमणादि गणपाठ है। पतंजलि ने शंकरा नामा परिव्राजिका का वर्णन किया है। उस समय इन संन्यासिनियों को श्रमणा, प्रव्रजिता, तापसी, कुमार श्रमणा आदि नामों से अभिहित किया जाता था । तक्षशिला की प्रसिद्ध तपस्विनियों में शंकरा और शकुनिका की गिनती की जाती थी। ___महाभारत में स्त्री को योग के योग्य माना गया है। (१२।२४१) सुलभा नामक एक तपस्विनी का वर्णन महाभारत (१२।३२२) में आया है। इसने राजर्षि जनक से मोक्ष धर्म पर चर्चा की थी। जनक ने उसे भयवश ब्राह्मण तापसी माना था इस पर सुलभा ने उसके भ्रम को दूर करते हुये उन्हें बताया कि वह क्षत्रिया है और योग्य पति न मिलने के कारण उसने गृहत्याग किया है । उक्त उल्लेख से ज्ञात होता है कि उस युग में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय जातियों की स्त्रियां गृहत्याग कर संन्यासिनी बन जाती थीं। तुलसी प्रज्ञा, लाग्नूं : खंड २३ अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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