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________________ (८) सम्यक् समाधि-चित्त की एकाग्रता को ही समाधि कहते हैं। बौद्ध धर्म में अष्टांगिक मार्ग का विशद विवेचन किया गया है, यही आत्म विकास का साधन है । जीव को यह करुणा और समभाव और सहिष्णुता की ओर ले जाता है । वास्तव में अष्टांग मार्ग अपनाने से आत्म विजय संभव है। निर्वाण बुद्ध की दृष्टि से निर्वाण बुझ जाने को कहते हैं। यह प्रवाह के रूप से उत्पन्न नामरूप तृष्णा के वशीभूत होकर जो एक जीवन-प्रवाह के रूप से गतिशील है, इसी गति या प्रवाह का सर्वथा विच्छेद हो जाना ही 'निर्वाण' है । दीपक में डाले गये तेल के समाप्त हो जाने पर जैसे दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार काम, भोग, पुनर्जन्म और आत्मा के नित्यत्व आदि के क्षीण हो जाने पर आवागमन नष्ट हो जाता है। बुद्ध ने उस अवस्था को निर्वाण की अवस्था कही है, जहां तृष्णा नष्ट हो गयी है और भोगादि का कोई अस्तित्व नहीं रह गया है । जीव के मर जाने के बाद क्या होता है, इसको बुद्ध ने इस आशय से छोड़ दिया है कि जो व्यक्ति अनात्मवाद को जान लेता है उसके लिए 'निर्वाण' की उस अवस्था को जानना शेष नहीं रह जाता है । इस संबंध में अधिक कहना उन्होंने वैसा ही समझा जैसे कि अज्ञानी बालकों के सामने गूढ बातों की व्याख्या करके उन्हें चौंका दिया जाय । इसको उन्होंने 'अव्यक्त' (अकथनीय) के अन्तर्गत माना है । बुद्ध ने लोक, अनित्य, जीव, शरीर, पुनर्जन्म और निर्वाण के संबंध में कहा है कि उन्हें बताने की आवश्यकता ही नहीं है। निर्वाण का आशय जीवन की समाप्ति नहीं, बल्कि जीवन की अनन्त शांति की अवस्था है । निर्वाण का आशय है मृत्यु के बाद सर्वथा अस्तित्वरहित हो जाना। निर्वाण से जो बुझने का अर्थ लिया जाता है उसमें जीवन का 'अन्त न होकर लोभ, घृणा, हिंसा आदि प्रवृत्तियों के बुझ जाने से है । जब वासनाएं बुझ जाती हैं तो भूत जीवन भावी जीवन और वर्तमान जीवन के जो द्वादश भवचक्र हैं जिसका ऊपर विवेचन हुआ है उनकी निवृत्ति हो जाती है। इसलिए निर्वाण को 'सितिभाव' की अवस्था कहा गया है । जीवन की वह पवित्रता, शांति, शिवतत्व और प्रज्ञा की अवस्था है। राग, द्वेष, घृणा, कर्म आदि बंधन के बीज हैं । इन्हीं से पूर्व जन्म का चक्र चलता है। किंतु बीज का निरोध कर देने से वह पल्लवित तथा अंकुरित नहीं होने पाता । निर्वाण वस्तुतः निश्रेयस, मुक्ति, अमृत, परमानन्द और परम शांति की अवस्था है। वह वर्णनातीत है । वह तर्क औक प्रमाण से रहित अलौकिकास्था है । उस अवस्था तक पहुंचने के लिए बौद्ध दर्शन में आठ मार्ग (अष्टांग) बताये गये हैं । बौद्धों के प्रसिद्ध ग्रंथ 'धम्मपद' में कहा गया है कि स्वास्थ्य की प्राप्ति बड़ा लाभ है, संतोष ही सबसे बड़ा धन है, विश्वास ही सबसे बड़ा संबंधी है और निर्वाण ही परम सुख है । आचार्य शांतिदेव ने दो प्रकार के निर्वाण का उल्लेख किया है १. सउपादिसेस निर्वाण २. अनुपादिसेस निर्वाण पांच स्कंधों के विद्यमान रहने पर जिस निर्वाण की प्राप्ति होती है वह सउपा YGO तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524594
Book TitleTulsi Prajna 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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