________________
होती है, अर्थात् एक कारण के आधार पर एक कार्य उत्पन्न होता है जो अविद्या का स्वरूप है । वह पुनः कारण बनकर एक भिन्न कार्य को उत्पन्न करता है। इस प्रकार कार्यकारण की क्रम-परम्परा की एक श्रृंखला बन जाती है । इन्हीं कार्यकारणों की परम्परा में संसार चक्र नलता रहता है, इसे 'भवचक्र' भी कहते हैं, इसके बारह स्वरूप ऊपर रेखांकित किए गए हैं । जब तक जीव इस भावचक्र से मुक्त नहीं होता तब तक उसके दुःखों का नाश नहीं होता । इन दुःखों को समाप्त करना आवश्वक है। बुद्ध ने बताया कि दुःख नित्य नहीं है । नित्य तो कुछ भी नहीं है, इन दुःखों के नाश के लिए उपाय हैं । उन उपायों के द्वारा दुःख का नाश कर जीव अपने जीवन में परमपद को प्राप्त कर सकता है । 'भवचक्र' को समाप्त कर परमपद को प्राप्त करने के लिए बुद्ध ने नैतिक जीवन का मार्ग प्रशस्त किया । इसे अपनाने से मनुष्य सभी दुःखों से निवृत हो जाता है और परम आनन्द की अनुभूति करता है। इसे अष्टांग मार्ग कहते हैं। बुद्ध का अष्टांग मार्ग
गौतम बुद्ध का मुख्य उपदेश नीति परक है, जिसका मनोवैज्ञानिक स्तर पर गंभीर विचार किया गया है । नैतिक जीवन तो सामान्य जीवन से निकलकर मोक्ष पाने का सेतु है । बौद्ध धर्म मनुष्य के नैतिक व्यक्तित्व का निरूपण करता है। बुद्ध ने कर्म, पुनर्जन्म पर विशद विचार किया। मनुष्य की इच्छा की समाप्ति होने पर उसके कर्म भी समाप्त हो जाते हैं । कर्म दो प्रकार के हैं-बौद्धिक व ऐच्छिक । शुभ और अशुभ कर्म मनुष्य जीवन में उपलब्ध होते हैं। शुभ कर्म का ध्येय लोक कल्याण है और अशुभ कर्म केवल निजी स्वार्थ है । बौद्ध धर्म वस्तुतः मध्यम मार्ग का धर्म है इसका मानना है, शारीरिक यातना मात्र में सिद्धि नहीं है और न भोग युक्त जीवन में है । दोनों के मध्य में विवेकपूर्ण जीवन स्थित होता हैं, इसे अष्टांग मार्ग द्वारा प्राप्त किया जा सकता
(१) सम्यक् दृष्टि-शरीर, मन और वाणी से यथार्थ रूप में ज्ञान प्राप्त करना
ही सम्यक् दृष्टि है। (२) सम्यक् संकल्प - आर्य सत्यों के अनुसार जीवन बिताने की दृढ़ इच्छा ही
'संकल्प' है। (३) सम्यक् वाक्-कट भाषण और व्यर्थ की बातों का परित्याग कर मीठी
वाणी बोलने का नाम ही सम्यक् वाक हैं। (४) सम्यक् कर्म-पाप मुक्त जीवन ही सम्यक् कर्मान्त है । (५) सम्यक् जीविका-निष्कपट एवं वास्तविक कर्मों के द्वारा जीविका का
उपार्जन करना ही सम्यक् जीविका है । (६) सम्यक् स्मृति-चित्त को चित्त और मानसिक अवस्था के रूप में बराबर
स्मरण करते रहना ही सम्यक् स्मृति है । (७) सम्यक् प्रयत्न-बुरी भावनाओं को छोड़कर अच्छी भावनाओं में प्रवत
होना ही सम्यक् प्रयत्न है । खण्ड २३, पंक ४
४७९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org