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________________ एतादृश धात्वर्थ के अंशभूत व्यापार में अनुकूलता सम्बन्ध से संयोग रूप फल का प्रकारता के रूप में शाब्दबोध में भान होता है अतः संयोग रूपी फल धात्वविच्छेदक कहलाता है। फलतः कर्मविहित आख्यात की फल में शक्ति होने के कारण ही गम् प्रभृत्ति धातुएं अनुकूलता सम्बन्ध से संयोगादि विशिष्ट व्यापार की बोधक होने के कारण सकर्मक कहलाती हैं। इसलिये फलावच्छिन्न व्यापार की बोधक जो धातुएं नहीं होंगी वे अकर्मक कहलाती हैं। यथा 'घटोऽस्ति' इत्यादि स्थलों पर अस् प्रभति धातुएं सत्तामात्र की बोधक होने के कारण 'अस भुवि' अकर्मक कहलाती है-कर्मविहिताख्यातस्य कर्मणि वाच्ये विहितस्य शब्दशास्त्रनुशिष्टस्याख्यातस्य तेप्रभूत्यात्मनेपदिप्रत्ययस्य फले धात्वर्थतावच्छेदकीभूते फले इत्यर्थः । धातूनां फलावच्छिन्नव्यापारबोधकत्वादिति भावः । न कर्मणि धात्वर्थतावच्छेदकीभूतफलाश्रये शक्तिनं कल्पनीया गौरवादिति शेषः। फलन्त्वितिधात्वर्थतावच्छेदकं धात्वांशेऽनुकूलतासम्बन्धेन प्रकरी भूतम् । तथाहि गम्यते इत्यादी गमिधातोः संयोगात्मकफलानुकूलस्पन्दरूपव्यापारवाचितया तादृशधात्वर्था शव्यापारेऽनुकूलतासम्बन्धेन संयोगात्मकफलस्य प्रकारतया शाब्दबोधे भासते इति संयोगस्य धात्वर्थतावच्छेदकत्वं बोध्यम् । एवमन्यत्राप्यनुसन्धेयम् । अतएवेति-कर्मविहिताख्यातस्य फलशक्तत्वादेवेत्यर्थः गमिधातोः पच्धातोश्चानुकूलतासम्बन्धेन संयोगविशिष्टव्यापारबोधकतया विक्लप्तिविशिष्टव्यापारबोधकतया च सकर्मकत्वं बोध्यम् । तदबोधकत्वे च फलावच्छिन्नव्यापारबोधकत्वे च यथा घटोऽस्तीत्यादी अस्धातोः सत्तामात्रबोधकत्वादेवाकर्मकत्वं बोध्यम् । कर्मवाच्य में विहित तिङ् प्रत्यय की फल में, वर्तमानत्वादि काल में तथा एकत्वादि संख्या में शक्ति होती है। वाक्यार्थबोध में वर्तमानत्वादि काल की फल में तथा एकत्वादि संख्या की फलाश्रय कर्म में ही प्रतीति होती है। अतः कम में संख्या का अन्वय होने के कारण ही कर्म गत संख्या के समान ही क्रियापद में संख्या का प्रयोग होता है--कर्माख्यातस्य कर्मणि वाच्ये विहितस्याख्यातप्रत्ययस्य फले धात्वविच्छेदकीभूते फले वर्तमानत्वादी वर्तमानकालिकवृत्तित्वादी तत्तच्छब्दप्रयोगाधिकरणकालवृत्तित्वादाविति यावादादिपदाद्वर्तमानध्वंसप्रतियोगिकालवृत्तित्वरूपातीतत्वस्य वर्तमानप्रागभावप्रतियोगिकालवृत्तित्वरूपभविष्यत्त्वस्य च परिग्रहः। एकत्वादी एकत्वद्वित्वादिसंख्यायां शक्तिः बोध्यते इति शेषः। प्रतीयते इति-तथा च कर्मणि संख्यान्वयादेव तादृशसंख्यासमानसंख्यकवचनानि क्रियापदे भवन्तीति भावः। कर्मगतसंख्याभिधानेन कर्मविहितप्रत्ययात्कर्मगतसंख्यायाः प्रतिपादनेन द्वितीयाया बाधितत्त्वादिति तथा हि कर्मणि द्वितीया पाणिनिसूत्रेऽनभिहिते कर्मणि द्वितीयाविधानेन कर्मगतसंख्याभिधाने एव कर्मणि द्वितीया भवतीति तस्य तात्पर्यम् । इत्थं च कर्मगतसंख्या भिधानमेव द्वितीयाबाधकमित्यपि ततो व्यज्यते । भाववाच्य प्रयोग भाववाच्य में आख्यात के द्वारा शुद्ध धात्वर्थ व्यापार ही अर्थ होता है, कृति और फल इत्यादि तिङ् के अर्थ नहीं होते। यद्यपि भावाख्यातस्थल में प्रत्यय का अर्थ धात्वर्थस्वरूप ही होने के कारण उद्देश्य विधेय भाव का अन्वय 'घटो घट:' के समान नहीं हो सकेगा, तथापि जिस प्रकार करोति क्रियापद के शाब्दबोधस्थल में आख्यात खण्ड २३, मंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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