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________________ मानने पर गम् प्रभृति धातुओं के 'उत्तरदेशसंयोगानुकूलव्यापार' इस अर्थ में एक 'व्यापार' तिङ् का अर्थ और जुड़ जाने पर 'उत्तरदेशसंयोगानुकूलव्यापारानुकूलव्यापार' इस प्रकार गुरुभूत होने लगेगा। यद्यपि व्यापार क्रियास्वरूप है, तथापि क्रिया का लक्षण 'संयोगभिन्नत्वे सति संयोगासमवायिकारणत्वम्' भेदघटित होने के कारण तथा असमवायिकारणता से घटित होने के कारण महान् गुरुभूत होने से महागौरव दोष उपस्थित हो जाता है जबकि तिर्थ 'कृति' मानने पर इस गौरवदोष से बचा जा सकता है-ननु निरुक्तदोषादाख्यातस्य कर्तरि शक्तिर्मा भवतु परन्तु व्यापारे शक्तिकल्पने का क्षतिः ? इत्यत आह-एवमित्यादिना । एवं शक्यतावच्छेदककृतेरननुगमाद्यथाख्यातस्य कर्तरि न शक्तिस्तथेत्यर्थो व्यापारेऽपि न शक्तिः कल्पनीयेति शेषः। तत्र हेतुमाह कृत्यादि इति । कृत्यादिसाधारणस्य यावद् व्यापारगतस्य व्यापारत्वस्यानुगतकधर्मत्वाभावेन तत्राख्यातशक्यतावच्छेदकत्वकल्पने महागौरवादिति भावः।" यद्यपि अचेतन रथ में कृति (यत्न) असम्भव है क्योंकि कृति (यत्न) तो चेतना का धर्म है तथापि कृति का केवल व्यापार अर्थ न मानकर निरूढा लक्षणा के द्वारा व्यापाराश्रय अर्थ करने पर उक्त असङ्गति का निराकरण हो जाता है तथा च रथो गच्छतीत्यादी उत्तरदेशसंयोगरूपधात्वर्थस्यानुकूलतासम्बन्धेनाख्यातार्थव्यापारे तत्र च वर्तमानत्वरूपतदर्थस्यान्वयेन गमनानुकूलवर्तमानव्यापाराश्रयो रथ इति ।" विशेष स्थल ___ आख्यात के विशेषार्थक स्थल 'करोति, द्वेष्टि, यतते, जानाति, इच्छति' इत्यादि हैं जहां नैयायिक शक्यार्थ के आधार पर अन्वयबोध की बाधा उपस्थित होने पर लक्ष्यार्थ के द्वारा शाब्दबोध का निर्वाह करते हैं। अर्थात् आख्यातार्थ कृति का अन्वय बाधित होने पर भी तिङ् के अर्थ संख्या और काल कर्ता में तथा संख्या और धात्वर्थ में वर्तमानत्वादि काल का अन्वयबोध होने में कोई बाधक नहीं है। अतएव जहां सविषयक पदार्थों का अभिधान करने वाली धातुओं के प्रयोगस्थल 'चैत्रः कटं करोति' इत्यादि में 'कटम्' पद में प्रयुक्त होने वाला कमबोधक अम् प्रत्यय सविषयक अर्थ, वाला है वहां पर 'कटविषयकवर्तमानकृत्याश्रयश्चत्रः' ऐसा शाब्दबोध होता हैसवियकपदार्थाः ज्ञानेच्छाकतिद्वेषरूपाः 'ज्ञानेच्छाकतिद्वेषाः सविषयकाः' इति शास्त्रातदभिधायिनस्तद्वाचका ये धातवः कुप्रभृतिघातवस्तदुत्तरं तदुत्तरवर्तिनः कर्तृ विहिताज्यातस्य कर्तरि वाच्ये विहिताख्यातप्रत्ययस्येत्यर्थः । यथेत्यादि-करोतीत्यादी कृत्यादेः कृतिप्रयोज्यत्वाभावेनाख्यातार्थकृतौ धात्वर्थकृतिद्वेषयत्नज्ञानेच्छादेरनुकूलतासम्बन्धेनान्वयबाधादाश्रयत्वरूपलक्ष्यार्थमादायान्वयबोधनिर्वाहयत्नस्यापि कृतिपर्यायकतया सविषयकत्वं ग्राह्यम् । इदन्तु बोध्यमाख्यातस्य कृतिरूपार्थान्वयस्य बाधेऽपि संख्याकालरुपतदर्थयोः कर्तरि संख्यायां धात्वर्थे च वर्तमानत्वादिकालस्यान्वयबोधेऽपि न कोऽपि बाधकः । एवञ्च चैत्रः कटं करोतीत्यादौ सविषयकपदार्थाभिधायिधातुकस्थले कर्मप्रत्ययस्य सविषयकस्वार्थकतया कटविषयकवर्तमानकृत्याश्रयश्चैत्रः । एवं ज्ञानेच्छादिस्थलेऽप्यूह्यम् ।" 'घटो नश्यति' इत्यादि स्थलों में तिथं कृति तथा लक्ष्याचं आश्रय को छोड़कर तिङ् की लक्षणा २३ बंक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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