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________________ व्यक्तिषु शक्यतावच्छेदकत्वकल्पने गौरवादिति भावः । ५ _ 'चैत्रः पचति' इत्यादि स्थलों में तिङ् का अर्थ कर्ता नहीं मानने पर कर्ता के अनुक्त हो जाने से 'अनभिहिते'। इस अधिकार सूत्र के द्वारा अनुक्त कर्ता में तृतीया होने से 'चत्रेण पचति' इत्यादि अनिष्ट प्रयोगों की आपत्ति होने लगेगी-यह आपत्ति नहीं दी जा सकती। कारण कि आख्यात स्वरूप तिङ् प्रत्यय के कति से अन्य अर्थ एकत्वादि संख्या का अन्वय चैत्रस्वरूप कर्ता (नामार्थ) के साथ विवक्षित है। अतः कर्तृ स्वरूप चत्रगत नामार्थ एकत्व संख्यारूप आख्यातार्थ के द्वारा उक्त हो जाता हैअयम्भावः कर्तृ करणयोस्तृतीयेति पाणिनिसूत्रेऽनभिहिते कर्तरि करणे च तृतीयाविधा नादाख्यातप्रत्ययस्य कतो शक्त्या कृतिमात्राभिधायकत्वे चंत्रः पचतीत्यादो तिहा कृतिमात्राभिधाने कर्तुरनभिधानेन कर्तृवाचकचत्रपदोत्तरं तृतीयपत्तिनिरुक्तानुशासनबलादिति। तच्छङ्कां निरस्यति कर्तृगतेत्यादिना । तथाहि यत्राख्यातेन कर्तृगतसंख्याया अनभिधानं कर्तृ विशेष्यकसंख्याप्रकारकान्वयबोधस्तत्र तादृशान्वयबोधजनकलकारादिसमभिव्याहतकर्तृवाचकपदोत्तरं प्रथमा भवति । यथा मैत्रः पचतीत्यादी लकारस्थानीयतिपा चैत्रविशेष्यककत्वसंख्याबोधनात्तादृशलकारसमभिव्याहृतचत्रपदोत्तरं प्रथमा । ९७ 'चत्र: भोजन पचति' यहां पचति क्रिया पद के अंतर्गत प्रयुक्त होने वाले तिप्रत्ययार्थ 'संख्या' के द्वारा चैत्रगत एकत्व का अभिधान हो जाता है और भोजनगत एकत्व का अभिधान नहीं होता । इस प्रकार यहां संख्या विधान के नियामकता की आपत्ति हो सकती थी लेकिन 'लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः' एवं 'अभिधानन्तु प्रायेण तिङ्कृत्तद्धितसमास:"" इत्यादि नियामक शास्त्रों के उपस्थित रहते यह अव्यवस्था टल जाती है। कर्ता में विहित तिङादि प्रत्ययों के द्वारा कर्तृगत संख्या का बोधन होने के कारण कर्तृगत संख्या के समान तिकादि भी संख्यायुक्त होते हैं। कर्म में विहित तिङादि कर्मगत संख्या के बोधक होने के कारण कर्म के समान संख्या से युक्त होते हैं-यत्राख्यातेन कर्तृगतसंख्याया अनभिधानं कर्तृ विशेष्यकसंख्याप्रकारकान्वयबोधस्यजननं तत्र तादृशान्वयबोधाजनकलकारादिसमभिव्याहृतकर्तृवाचकपदोत्तरं तृतीया भवति । यथा चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादी लकारस्थानीयतेप्रत्ययेन चैत्रविशेष्यकैकत्वसंख्याया अबोधनास्परन्तु कर्मवाचकतण्डुलगतैकत्वसंख्याबोधनात्तादशलकारसमभिव्याहृतचत्रपदोत्तरं तृतीया। तत्रानुशासनं कतृकरणयोस्तुं तीयेति पाणिनिः। तादृशसूत्रस्योक्तरूपार्थ एव तात्पर्यम् । मुग्धबोधे तु साधनहेतुविशेषणभेदकं धं कर्ता धस्त्रीति व्यवस्थापितस्वादिति । तथा हि कर्तृ विहितास्तिकादयः कर्तृगतसंख्याया एव बोधनात्तादृशसंख्यायासमानसंख्यकवचनाः भवन्ति कर्मविहितास्तिङादयः कर्मगतसंख्याया बोधनात्तादृशसंख्यायासमानसंख्यकवचना भवन्तीति संख्याबोधनाबोधनाभ्यां प्रथमातृतीययोनियमनादित्यर्थः । रथो गच्छति इत्यादि स्थलों में मीमांसक मतानुसार तिम् का अर्थ भावना अर्थात् व्यापार तुलसी प्रथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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