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________________ आख्यात का स्वरूप नव्य न्यायशैली में आचार्य आशुबोध विद्याभूषण ने इस प्रकार बताया है आख्यातत्वञ्च धात्वर्थावच्छिन्नस्वार्थयत्नविधेयताकान्वयबोधसमर्थशम्दत्वम् । वात्रय आख्यातार्थ के बारे में तीन वाद प्रसिद्ध हैं वैयाकरणवाद, मीमांसकवाद और नैयायिकवाद । वैयाकरण लकारस्थानीय तिङ् प्रत्ययों का अर्थ कर्ता, कर्म, संख्या और काल मानते हैं-आश्रये तु तिङः स्मृताः, अपि च, तिङर्शः कर्तृकर्मसंख्याकाला: । मीमांसक आख्यात अर्थात् तिङ् का अर्थ व्यापार मानते हैं- तत्राख्यातत्वं दशलकारसाधारणं लिङ्त्वं पुनलिङ्मात्रे उभाभ्यामप्यंशाभ्यां भावनवोच्यते ।" व्यापार को ही भावना, अभिधा तथा साध्यत्वरूप से प्रतीयमान क्रिया इत्यादि नामान्तरों से पुकारा जाता है-व्यापारस्तु भावनाभिधा साध्यत्वेनाभिधीयमाना क्रिया । भावना का लक्षण है-भवितुर्भवनानुकूलो भावयितु ापारविशेषः ।५ भावना के दो भेद हैं शाब्दी तथा आर्थी। ये दोनों ही प्रकार की भावनाएं आख्यात का अर्थ मानी जाती हैं । प्राचीन नैयायिक तिङ् का अर्थ कति मानते हैं। इनके मत में शाब्दबोध प्रथमान्तार्शमुख्य विशेष्यक होता है प्रथमान्तार्थविशेष्यक एव बोधः । ओदनकर्मकपाकानुकुलकृतिमांश्चंत्र इति नैयायिकाः ।। त्रिविध प्रयोग तिङ् के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करने पर भी विविध प्रयोग स्थलों के बारे में कोई मतभेद नहीं हैं। वे हैं कर्ता, कर्भ और भाव । अर्थात तिङ प्रत्ययों का प्रयोग कर्तृवाच्य (पचति) कर्मवाच्य (पच्यते) और भाववाच्य (सुप्यते) में होता है-स चाख्यातस्त्रिविधः कर्तृ विहितः कर्मविहितो भावविहितश्चेति", स चाख्यातः पूर्वोक्तः आख्यातपदवाच्यस्तिङादि त्रिविधः तिस्रः श्रयो वा विधाः प्रकाराः भेदा इति यावद्यस्य स त्रिविधः त्रिविधत्वेन व्यवह्रिय माण इत्यर्थः । ५८ नयायिक कि तिङ का अर्थ कृति स्वीकार करते हैं तथा वाक्य में प्रथमान्त पद को प्रधान मानते हैं अतः वे आख्यात की व्याख्या कृञ् धातु के द्वारा करते हैं । जैसे 'गच्छति' शब्द की व्याख्या 'गमनं करोति' इस विवरण द्वारा करते हैं। यहां गम् धातु का अर्थ 'गमन' तथा तिप् प्रत्यय का 'करोति' अर्थ किया गया है अतः तिङ् प्रत्यय कृति का ही बोधक माना जाता है तथा चाख्यातसामान्यस्य यत्नापरनामकृती शक्तिः तस्याञ्चानुकूलतासम्बन्धेनधात्वर्थस्य विशेषणतया धात्वर्थावच्छिन्नयत्नो बोध्यते शाब्दबोधे तादृशयत्नस्य विधेयतया भानात् । तादृशयत्नविधेयताकान्वयबोधसमर्थः शब्दः तिङ्प्रत्ययादिर्बोध्यः । ' वैयाकरण चूंकि आख्यात की कर्ता में शक्ति मानते हैं इसलिये 'चत्रो गच्छति' इत्यादि स्थलों में चैत्र के साथ गम कर्ता का अभेद सम्बन्ध भासित होता है तथा 'गमनकर्षभिन्नश्चैत्रः' ऐसा शाब्दबोध होता है यथा वैयाकरणराख्यातस्य कर्तरि शक्तिरुच्यते। चैत्रः पचतीत्यादी का सह चैत्रस्या भेदान्वयः ॥" तुमसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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