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विधि रूप अर्थ में ही अन्य निमन्त्रणादि अर्थ भी अंतर्भूत हो जाते है क्योंकि सभी अर्थों में विध्यर्थ का ही प्राधान्य रहता है-प्रपञ्चाथ न्यायव्युत्पादनार्थ वार्थभेदमाश्रित्य भेदेनोपादानविधिनिमन्त्रणादीनां कृतम् । विधिरूपता हि सर्वत्रान्वयिनी विद्यते ।" नैयायिक परम्परा में शब्दशक्तिप्रकाशिकाकार आचार्य श्री जगदीश तर्कालङ्कार ने भी लिङ् लकार के अन्य निमन्त्रणादि अर्थों का उल्लेख नहीं किया है और मात्र विधि अर्थ में ही इस लकार को स्वीकार किया है। उन्होंने कहा कि लट् और लोट से भिन्न तथा विधि का बोध कराने में समर्थ लकार विधिलिङ् कहा जाता है। विधि से तात्पर्य प्रवर्तक में रहने वाले प्रवृत्त्यनुकूल व्यापार से है तथा इसका विषय प्रवर्तकज्ञान है
लड्लोडन्या विधेर्बोधे समर्था तिङ् लिङच्यते ।
प्रवर्तकचिकीर्षाया हेतु/विषयो विधिः ॥१५ श्रीजयकृष्ण तलिङ्कार ने उपर्युक्त परम्पराद्वय से पृथक् अपना स्वतंत्र मत प्रस्तुत करते हुए विधिलिङ् लकार को विधि और सम्भावना इन दो अर्थों में माना है। विधि से तात्पर्य कर्त्तव्यता के उपदेश से है। यथा 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' अर्थात् स्वर्ग की कामना करने वाले को अग्निहोत्र याग करना चाहिए। इस वाक्य के द्वारा कर्तव्यता का अपूर्व उपदेश दिया गया है, अतः यह विधिवाक्य है। सम्भावना का अर्थ है कल्पना अर्थात् क्रियाओं में योग्यता का अध्यवसाय करना । यथा-'अपि गिरि शिरसा भिन्द्यात्' इत्यादि वाक्यों में 'अपि शब्द सम्भावना का द्योतक है। यहां 'गिरिविदारण में यह व्यक्ति समर्थ है' इस प्रकार की सम्भावना घोतित होती है-विधिलिङो भविष्यत्त्वं विधिः सम्भावना च । विधिः कर्त्तव्यतोपदेशः सम्भावना कल्पनम् ।
परमलघुमञ्जूषाकार नागेशभट्ट ने लिङ् लकार को विधि और आशीर्वाद इन दो अर्थों में माना है। यजेत इत्यादि में विधि अर्थ है, जबकि भूयात् इत्यादि में आशीर्वाद (शुभेच्छा) अर्थ है-लिङो विधिराशीश्चार्थः । यजेतेत्यादी विधिराशीस्तु भूयादित्यादौ । सा च शुभाशंसनं तदिच्छेति यावत् । आख्यातार्थ
लट् इत्यादि दशों लकारों अथवा लकारों के स्थान पर आदेशभूत तिङ् प्रत्ययों को आख्यात नाम से पुकारा जाता है
लकारस्थानीयतिङामाख्यातपदवाच्यत्वम् । लट् आदि लकारों की संख्या दस हैं। प्रत्येक लकार में प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा उत्तम पुरुष के एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में नौ प्रत्ययों का प्रयोग होता है। इस प्रकार तिबादि प्रत्यय नब्बे स्थानों पर विभक्त हो जाते हैं। पुनः आत्मनेपद और परस्मैपद के रूप में द्विधा विभाजन होने के कारण इन तिङ्गप्रत्ययों की संख्या भिन्न-भिन्न लकारों को प्राप्त करके एक सो अस्सी तक पहुंच जाती है । ये सब आख्यात कहलाते हैं-लकारस्थानीयानां लड्लोडादिदशविधलकारप्रतिपाद्यानां तिङां तिकादिसाशीतिशतसंख्यकप्रत्यायानामाख्यातपदवाच्यत्वमाख्यातपदप्रतिपाद्यत्वमित्यर्थः।।
वण २३, बंक।
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