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________________ की सम्पूर्ण रत्नराशि अद्भुत गरिमा के साथ सुरक्षित है। सारमंजरी में प्रामाणिकता के साथ विभिन्न सिद्धांतों को सम्यक् रूप से विवेचित किया गया है। सारमंजरी के दो नाम और हैं, वे हैं शाब्दबोधप्रकाश और शब्दार्थसारमंजरी। श्रीजयकृष्ण ने अपनी कृति के अंतिम पद्य में 'सारमंजरी' के लिए 'शब्दार्थसारमंजरी' शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है कि जयकृष्ण ने यह कृति विविध ग्रंथों को देख कर तथा उन पर पुनः पुनः विचार करके लिखी है। इससे यह सिद्ध होता है कि ग्रंथकार के समक्ष ग्रंथरचना के समय पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों की विपुल ग्रंथराशि विद्यमान थी जिसका सारसंग्रह उन्होंने अपनी कृति में किया है ___ आलोक्य विविधग्रंथं विचार्य च पुनः पुनः । कृतेयं जयकृष्णेन शब्दार्थसारमंजरी ॥" सारमंजरी का मुख्य उपजीव्य (स्रोत) व्याकरणशास्त्र और न्यायशास्त्र के ग्रन्थ है। सम्भवतः व्याकरणशास्त्र और न्यायशास्त्र के सिद्धांतों को एक साथ अत्यल्प शब्दों में प्रतिपादित करने वाला यह प्रथम ग्रंथ है। पूर्व में विद्यमान व्याकरणशास्त्र, न्यायशास्त्र, साहित्य और मीमांसाशास्त्र के अनेक उदाहरणों, प्रत्युदाहरणों, सिद्धांतों और मतमतान्तरों को अंतर्भाव करने वाली इस सारमंजरी में विस्तृत व्याख्यानों एवं शास्त्रार्थों को आलोचनापूर्वक एक या दो पंक्तियों में ही उल्लिखित कर दिया है। उदाहरण के लिए 'काल' जैसे विस्तृत विषय को मात्र चार पंक्तियों में ही निरूपित कर दिया है, जबकि इस विषय को लेकर आचार्य भर्तृहरि ने स्वकृति-'वाक्यपदीय' के तृतीय काण्ड में एक पूरा समुद्देश लिखा है तत्र प्रथमतः कालत्रयनिरूपणम् । वर्तमानध्वंसप्रतियोगित्वमतीतत्वम् ।। वर्तमानप्रागभावप्रतियोगित्वं भविष्यत्वम् । स्वावच्छिन्नकालवृत्तित्वं वर्तमानत्वम् ॥" काल, आख्यात, शाब्दबोध और निपातादि गम्भीर स्थलों की एकत्र प्राप्ति हेतु सारमंजरी से सरल और संक्षिप्त कृति अद्यावधि वैयाकरणनिकाय में, सम्भवतः अनुपलब्ध है। सारमंजरी में लम्बे चौड़े शास्त्रार्थ नहीं हैं जो प्रायः व्याकरणसम्प्रदाय और न्यायसम्प्रदाय में पाये जाते हैं। विषय को समझने-समझाने का जो प्रसादपूर्ण, सशक्त और सरल भाषा में प्रयत्न इस कृति में पाया जाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ग्रंथकार ने व्याकरण शास्त्र के सिद्धांतों को न्यायशास्त्रीय शैली में प्रस्तुत किया है। इसके लिये ग्रंथकार को न्यायशास्त्रीय सिद्धांतों को आत्मसात् करना आवश्यक था, जो पूर्णरूपेण किया गया है। श्रीजयकृष्ण का अभिमत न्यायशास्त्रीय अधिक प्रतीत होता है; यथा न्यायसिद्धांतमुक्तावली के तत्पुरुष समास स्थल में कहा गया तत्पुरुषे तु पूर्वपदे लक्षणा ।" इसी से मिलता-जुलता कथन सारमंजरी में भी मिलता हैपण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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