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________________ दृष्टि व्याकरण के दार्शनिक भाग को लेकर व्यापक रूप से खुल नहीं पाई। व्याकरण के दार्शनिक पक्ष का शुभारम्भ पतञ्जलि के व्याकरण महाभाष्य से होता है। आचार्य भर्तृहरि ने अपनी कृति 'वाक्यपदीय' के द्वितीय काण्ड में तो यहां तक कहा है कि महाभाष्य में कोई भी विषय वर्णन से अछूता नहीं रहा, क्योंकि वह ग्रन्थ तो समस्त न्यायों का बीजस्वरूप है .... कृतेऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदशिना । सर्वेषां न्यायवीजानां महाभाष्ये निबन्धने ॥ फिर भी संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक भाग का स्वणिम काल वसुरात के शिष्य आचार्य भर्तृहरि की अमूल्य कृति 'वाक्यपदीय' से प्रारम्भ होता है जिसमें उन्होंने अपनी कृति का आरम्म ही शब्दतत्त्व के विवेचन के साथ दिया है तथा समस्त तों को शब्दमूलक माना है अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थाभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। शब्दानामेव सा शक्तिस्तों यः पुरुषाश्रयः । शब्दाननुगतो न्यायोऽनागमेष्वनिबन्धनः ।।१४ तदनन्तर तो इस पक्ष को लेकर उत्तरोत्तर विद्वानों ने प्रशंसनीय कार्य करते हुए अनेक कृतियां लिखी हैं; यथा हेलाराज की वाक्यपदीयप्रकाशव्याख्या, मण्डन मिश्र की स्फोटसिद्धि, श्रीकृष्णभट्ट की स्फोटचन्द्रिका, कोण्डभट्ट की वैयाकरण भूषणसार प्रभृति । न्यायमिश्रित व्याकरण-परम्परा जब संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक भाग का इस प्रकार विशद रूप में प्रसार तथा विकास हो रहा था तब व्याकरण के क्षेत्र में ही कतिपय न्यायशास्त्र के आचार्य भी प्रवृत्त होने लगे । इसी बीच नव्य न्याय शैली का भी विकास हुआ जिसने साहित्य, व्याकरण और दर्शन प्रभृति समस्त परम्पराओं को प्रभावित किया। न्यायपरम्परा में व्याकरण को लेकर प्रवृत्त हुए आचार्यों में जगदीश तर्कालङ्कार और गदाधर भट्टाचार्य प्रमुख हैं। व्याकरणशास्त्र में सिद्धान्तकौमुदी, वैयाकरणभूषण, वैयाकरणसिद्धान्तमञ्जूषा, बहच्छब्देन्दुशेखर प्रभृति साङ्गोपाङ्ग ग्रन्थों की रचना होने पर लघुसिद्धान्तकौमुदी, परमलघुमञ्जूषा, लघुशब्देण्दुशेखर प्रभृति ग्रन्थों की भी आवश्यकता प्रतीत हुई, उसी प्रकार न्यायशास्त्रीय सिद्धान्तानुसार व्याकरणपरक शब्दशक्तिप्रकाशिका, व्युत्पत्तिवाद प्रभति विशालकाय ग्रन्थों के रहने पर भी कारकचक्र एवं सारमञ्जरी जैसे सारभूत लघु काय ग्रन्थों की भी महनीय आवश्यकता प्रतीत हुई और आचार्य श्री जयकृष्ण तालङ्कार ने इस दिशा में प्रशंस्य कार्य किया। विविध विद्या पारङ्गत श्री जयकृष्ण तर्कालङ्कार ने संस्कृत वाङ्मय के अनेक महत्त्वपूर्ण अङ्गों, दिशाओं और क्षेत्रों तथा विशेष रूप से व्याकरण दर्शन को अपने अध्ययन का विषय बनाया । उसे अपनी विविध गम्भीर कृतियों से आलोकित, अलंकृत एवं समृद्ध किया । इनका कार्य व्याकरण जगत् में अपूर्व है। खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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