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निर्धारित नहीं है।
इस प्रकार सभी शास्त्रों एवं दर्शनों में अमिधा, लक्षणा, व्यंजना एवं तात्पर्य इन चार वृत्तियों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। व्यंजना एवं तात्पर्यवृत्तियों का शम्दशास्त्र के लिए विशेष महत्त्व है। काव्य में भी अभिधेय एवं लक्ष्यार्थ से अतिरिक्त अर्थ भी विद्यमान रहता है। इस अतिरिक्त अर्थ की सत्ता से ही काव्य का वैलक्षण सिद्ध होता है। इस अर्थ की प्रतीति के लिए व्यंजना एवं तात्पर्य इन पृथक्-पृथक् व्यापारों की कल्पना की गई है। सन्दर्भ : १. स मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्या व्यापारोऽस्याभिधीयते ।
-- का० प्र०, २।१ २. तत्र संकेतितार्थस्य बोधनादग्रिमाभिधा ।
--सा० दर्पण, २७ ३. शक्त्या प्रतिपादिकत्वमभिधा ।
___-वृ० वा० सू० १ ४. शक्त्याख्योऽर्थस्य शब्दगतः अर्थगतो वा सम्बन्ध विशेषोऽभिधा ।
--रसगंगा० पृ० १४० ५. तेषु शब्दस्यार्थभिधायिनी शक्तिरभिधा। तया स्वरूप इवाभिधेये प्रवर्तमानः शब्दो
वृत्तित्रयेण वर्तते, ताश्च मुख्या गोणी लक्षणे ति त्रिस्रः। तत्र साक्षाव्यवहितार्था भिधायिका मुख्या।
__-~~शृंगार प्रकाश ७।२३३ ६. वृत्तिवातिक सू० २ ७. अवयवशक्तिमात्रसापेक्षं पदस्यैकार्थ प्रतिपादिकत्वं योगः।।
___-वृत्तिवातिक सू० ३ ८. अवयवसमुदायोभयशक्तिसापेक्षमेकार्थप्रतिपादकत्वं योगढ़िः ।
-वृत्तिवातिक सू० ४ ९. 4० सि० ल० म०, शक्ति प्रकरण । १०. न्यायसिद्धान्त मुक्तावली, शब्द खण्ड । ११. तात्पर्याविषयीभूतार्थान्वयानुपपन्तिः। शक्याभिन्नार्थधी हेतुर्व्यापारो लक्षणोच्यतु ।।
-का० द०, २०२१ १२. मुख्यार्थबाघे तद्योगे रूढितोऽय प्रयोजनात् । __ अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत् सा लक्षणारोपिता क्रिया ।।
___ --का० प्र०, २१९ १३. वैयाकरण सिद्धान्त लघुमन्जूषा, लक्षणा निरुपण । १४. वै० प० पृष्ठ २४३-२४६ १५. वैयाकरणभूषणसार, शक्ति नि० ।
खण्ड २३, अंक १
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