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________________ उपनिषद् और जैन दर्शन में आत्म स्वरूप-चिन्तन (२) हरिशंकर पाण्डेय जैन दर्शन एवं उपनिषद् परम्परा में आत्म स्वरूप प्रतिपादन कमोबेश एक जैसा है। उपनिषदों में व्यावहारिक दृष्टि से संसार चक्र में फंसा जीव ही आत्मा है और जैन दर्शन में भी कर्ममल लिप्त आत्मा संसारचक्र में परिभ्रमण करता रहता है। संसार चक्र से मुक्त होने पर ही उसका मूल स्वरूप उद्भासित होता है। दोनों परम्पराओं में इसके लिए समान साधन बताए गए हैं। आत्म प्राप्ति के साधन उपनिषद् और जैन दार्शनिकों ने आत्मप्राप्ति के संसाधनों का विस्तार से निरूपण किया है। उपनिषदों में मुख्यतया यमनियमादि का पालन संयमाराधन व्रतादिकों का अनुष्ठान, ध्यान-साधना, समत्वादि का साधन के रूप में निर्देश है। मुण्डकोपनिषद् में रूपक के माध्यम से आत्म-प्राप्ति के साधनों का उल्लेख किया गया है : धनुर्गहीत्वोपनिषदं महास्त्रं शरं ह्य पासा निशितं सन्धयीत । आयम्य तद्भावगतेन चेतसा __ लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ।' अर्थात् उपनिषदों में प्रसिद्ध या वणित संयम नियमादि रूप महान् धनुष लेकर उसपर उपासना द्वारा तीक्ष्ण किया हुआ बाण चढ़ा और फिर उसे खींचकर ब्रह्मभावानुगत चित्त से उस अक्षर रूप लक्ष्य का वेधन करें। प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् । अर्थात् प्रणव धनुष है, सोपाधिक आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधनतापूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए। उपर्युक्त प्रसंग में प्रणव-जप (ध्यान), आत्मा की उपासना, अप्रमाद, लक्ष्य में एकनिष्ठता एवं निरन्तरता आदि की साधना अनिवार्य है। जैनागमों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। दोनों परम्पराओं में उपदिष्ट संसाधनों में से कुछ प्रमुख का विवरण अधोविन्यस्त है : ___ अहिंसा-अहिंसा शब्द हिंसा का पूर्ण निषेध तो करता ही है साथ ही दया, खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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