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________________ ईश्वर-प्रणिधान आते हैं। जैन परम्परा में इन सभी तत्त्वों पर बड़ी गहराई से विचार किया गया है। बारह भावनाएं, मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा, तप, स्वाध्याय तथा आत्मा के त्रिविध अवस्थाओं पर जैनधर्म में चिंतन, मनन और भावन किया जाता है । आचार्य ने इन सभी का विवेचन 'ज्ञानार्णव' में यत्र-तत्र बड़ी अच्छी तरह से किया है। जैन योग परम्परा में आसनों का भी उपयोग किया गया है। आचार्य शुभचंद्र के अनुसार ध्यान-सिद्धि के लिए लकड़ी के पटिए पर, शिलापट्ट पर, जमीन पर या बालू पर आसन लगाना चाहिए। ये आसन हैं--पर्यंक. अर्धपर्यंक, वज्रासन. वीरासन. सुखासन और पद्मासन [२६.९-१०] । इनके अतिरिक्त उन आसनों का भी उपयोग किया जा सकता है जिनमें मन स्थिर रह सके। हेमचंद्र ने भद्रासन, दण्डासन, उत्कुटकासन और गोदोहिकासन का उल्लेख किया है [योगशास्त्र, ४.१२४] | शुभचंद्र ने इसी प्रसंग में कहा कि कालदोष से वर्तमान में कायोत्सर्ग और पर्यंक आसन का ही विशेष उपयोग होता है। महावीर जैसे वज्रवृषभनाराचसंहनन वाले योगी अब कहां हैं ? संयमी जनों का प्राचीन तेज अब दिखाई नहीं देता [२६.१२-१६] । यहीं उन्होंने आसन के महत्त्व को भी स्पष्ट किया है और कहा है कि योगी को आसनों का उपयोग अवश्य करना चाहिए । उसे आसनजयी होना आवश्यक है [२६.३८-४०] । तत्त्वानुशासन का 'वजकायस्य ध्यानम्' [पद्य ८४] भी उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी की ओर ही संकेत करता है। प्राणायाम में श्वास-प्रश्वास को रोका जाता है। मन के ऊपर विजय पाने के लिए शुभचंद्राचार्य ने इसे उपयोगी माना है। इसके तीन भेद हैं-पूरक, कुम्भक और रेचक । हेमचंद्र ने इनके अतिरिक्त प्रत्याहार, शांत, उत्तर और अधर नामक भेदों का भी उल्लेख किया किया है [५.५] । प्राणायाम के साथ ही पार्थिव, वारुण, वायवीय और आग्नेय मंडलों का वर्णन किया गया है। इनके क्रमशः क्ष, व, बिंदु और र बीजाक्षर हैं [२६.५९-६२] । यहीं दक्षिण और वामनाडियों का भी विस्तार से वर्णन हुआ है । इडा, पिंगला और सुषुम्ना तथा रंगचिकित्सा का भी विवेचन मिलता है। आचार्य ने यह भी कहा कि नीरोग व्यक्ति में दिन-रात में इक्कीस हजार बार प्राणवायु आती-जाती है । प्रत्याहार के प्रसंग में प्राणायाम की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न भी खड़ा कर दिया । उनका मंतव्य है कि प्राणायाम से शरीर को सूक्ष्म-स्थूल किया जा सकता है, पर वह मुक्ति का कारण नहीं बन सकता। संवेगी और इन्द्रियविजयी के लिए वह उपयोगी नहीं हैं। पीडाकारण होने से वह संक्लेश परिणामों को भी जन्म देता है। प्रत्याहार का तात्पर्य है मन को इन्द्रिय विषयों की ओर से खींचना। योगी के लिए इस प्रत्याहार की बड़ी उपयोगिता है [२७.४-५] । हेमचंद्र ने भी इसे स्वीकारा है [योगशास्त्र ६.६] । इसमें प्रत्यहार के माध्यम से मन को ललाट पर केन्द्रित किया जाता है । धर्मध्यान के लिए इसकी नितांत आवश्यकता होती है। प्राणायाम मन को विक्षिप्त कर सकता है पर प्रत्याहार मन को स्वस्थ और समता में स्थिर करता है [२७.१-२] । प्रत्याहार के द्वारा किए गए स्थिर मन को देश-विशेष में स्थिर करना धारणा खण्ड २३, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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