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________________ भी इसी तरह निगण्ठनातपुत्त के अनुसार कर्मों का आश्रव और उसकी निर्जरा का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है। पालि साहित्य में आए ये उद्धरण जैन योग परम्परा की आगमिक परम्परा पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। इनमें आए आश्रव और संवर शब्द योग के अप्रशस्त और प्रशस्त रूप की ओर संकेत करते हैं। यही कायोत्सर्ग को भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए अच्छा साधन माना गया है। तीर्थंकर महावीर की तपस्या का वर्णन आगमों में आता है। वे शून्यघरों में, मन्दिरों आयतनों में, श्मसान भूमियों में, वृक्षों के नीचे ध्यानस्थ हो जाया करते थे और अप्रमत्त होकर कायस्थ मुद्रा में समस्त साधना किया करते थे । प्राचीनतम सूत्र आचारांग में उनकी साधना का समीचीन वर्णन है । प्रारम्भ में 'संवर' शब्द का प्रयोग हुआ और बाद में जोग (योग), झाण (ध्यान), समत्त (समत्व) आदि जैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा । धर्मध्यान और शुक्लध्यान जैसे शब्दों का प्रयोग आचारांग में दिखाई नहीं देता। लगता है सूत्रकृतांग, समवायांग आदि आगमों तक आते-आते योग परम्परा व्यवस्थित होने लगी थी। इस काल में सर्वज्ञत्व की कल्पना भी आ गई थी जिसका उल्लेख पालि साहित्य में भी है । अनेक प्रकार की लब्धियों का वर्णन भी हम प्राचीनतम आगमिक परम्परा में पाते हैं। आचार्य भद्रबाह द्वारा नेपाल में की एई 'महाप्राण' ध्यान साधना (सर्वसंवर ध्यान योग साधना) भी इसी काल से संबद्ध है । यहां संवेग और निर्वेग में दृढ़ता को ही मुख्य मोक्षमार्ग माना है। समवायांग (सूत्र ३२), उत्तराध्ययन (२९.१-२) आदि सूत्रों में आई योग परम्परा निश्चित ही प्राचीन आगमिक परम्परा का ही विकसित रूप है। ___आचारांग में आश्रव, संवर, निर्जरा, योग, ध्यान जैसे योगात्मक शब्दों का प्रयोग विरल ही हुआ है, जबकि पालि परम्परा के उपालि और वप्प आदि सुत्तों में प्रथम तीन शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ है । इससे ऐसा लगता है, मूल जैन परम्परा आत्मवादी और कर्मवादी थी और कर्मों के आश्रव-बंध का संवर और निर्जरण कठोर तप के माध्यम में होता था। उत्तरकाल में पातञ्जल योग दर्शन के प्रभाव से झाण और जोग शब्दों का भी व्यवहार शुरू हो गया। सूत्रकृतांग में इन दोनों शब्दों का प्रयोग अनेक वार हुआ है। भगवती काल में यह प्रयोग और अधिक लोकप्रिय हो गया। विपस्सी (आ. १.२.५.१२५) और पासग (वही १-२-३.७३; १-२-६.२२५) जैसे शब्दों का प्रयोग भी यहां उद्धरणीय है जो जैन-बौद्ध आगमों में समान रूप से व्यवहृत हुए हैं। सम्भव है, ये दोनों परम्पराएं रामपुत्त की ध्यान परम्परा से अवगत रही हैं जिनका उल्लेख सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, दीघनिकाय आदि ग्रन्थों में हुआ है ।। आ. पुष्पदन्त और भूतबली (लगभग प्रथम शताब्दी ई. पू.) द्वारा रचित षट्खण्डागम यद्यपि विशुद्ध कर्मग्रंथ हैं पर यहां मार्गणा और गुणस्थान के प्रसंग में ध्यान और ध्यान के फल का वर्णन किया गया है। इसी परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, पूज्यपाद तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी जुड़े हुए हैं । यद्यपि इन आचार्यों के चिंतन में योग परम्परा का विकसित रूप दिखाई देता है पर वह उतना गहरा और १२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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