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________________ विकास के लिए उन्होंने जो प्रयास किए उससे वे एक आदर्श जीवन पद्धति एवं जीवन दर्शन के निर्धारण में सफल हुए थे। उस जीवन दर्शन के कई तथ्य आधुनिक विज्ञान के पूरक से जान पड़ते हैं । वे सब निश्चय ही हमारी अनमोल विरासत है । इस विरासत का सर्वोत्तम सदुपयोग इसमें आधुनिक विज्ञान ढूंढने में नहीं बल्कि इसको आधुनिक विज्ञान का पूरक बना लेने में ही है और यह प्रयास कुछ क्षेत्रों में सफल भी रहा है । इस दृष्टि से जो चीज आज विश्व में बहुत लोकप्रिय है एवं मानवता की महती सेवा कर रही है वह योग । स्पष्टतः हम यहां पातंजलि मुनि के अष्टांग योग की ही बात कर रहे हैं। योग के आठ अंगों से भी हम यहां सिर्फ उस अंग पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करने जा रहे हैं जो शरीर व चेतना के बीच सम्बन्धों की कुंजी है । वह है प्राणायाम | प्राणायाम शब्द का तात्पर्य प्राण पर नियंत्रण से है । प्राण शब्द का वास्तविक अर्थ बहुत व्यापक एवं गहन है । संक्षेप में अपने शरीर में इसकी महत्ता के लिए इतना सा जान लेना उपयुक्त होगा कि शरीर की सम्पूर्ण क्रियाएं प्राण से ही सम्पन्न होती हैं। ऐसा भी माना गया है कि प्राण ही शरीर में चेतना के टिके रहने का आधार है । प्राण निकलते ही शरीर से चेतना लुप्त हो जाती है । यह मृत मान लिया जाता है । इसलिए प्राण निकलना लोक में मृत्यु का पर्याय है । प्राण को केवल प्राणायाम की साधना से ही वास्तविक रूप से जाना सकता है। प्राण पर नियंत्रण प्राप्त कर एक तरफ तो साधक चेतना की उच्च स्थितियों में पहुंच कर आत्मसाक्षात्कार का लाभ उठा सकता है, दूसरी ओर शरीर को स्वस्थ, निर्मल व दीर्घायु रख सकता है। इन सबकी यद्यपि पूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या तो संभव नहीं परन्तु यदि प्राण के अत्यन्त स्थूल रूप श्वसन को समझा जाए तो बात काफी स्पष्ट होने लगती है । श्वसन पर आधुनिक विज्ञान का अध्ययन भी उपलब्ध है तथा योग के अनुसार श्वसन व प्राण में प्रत्यक्ष सम्बंध भी है । जिस प्रकार इन्द्रियातीत ईश्वर को समझने के लिए धर्म में मूर्तियों का सहारा लिया जाता है उसी प्रकार प्राण को समझने के लिए योग में श्वसन का सहारा लिया जाता है । श्वसन प्राण की मूर्ति है । यह मूर्ति प्रत्यक्ष फल प्रदान करने वाली है । पूर्ण शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा तो एक बात है, यदि जीवन में ओज, बल एवं बुद्धि का विकास करना हो तो इस मूर्ति की इतनी सी उपासना काफी मददगार साबित हो सकती है कि हम सही श्वास लें। हो सकता है बहुतों को यह बात चोंकाने वाली लगे । भला श्वास में भी कुछ सही गलत का चक्कर हो सकता है ? वास्तव में अधिकांश प्राणियों की तरह मनुष्य का श्वसन एक स्वतः सम्पन्न प्रक्रिया है । उसे खाने पीने की तरह इसके लिए कोई विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है इसलिए नैसर्गिक रूप से संचालित इस प्रक्रिया में जब व्यक्ति का स्वयं दखल है ही नहीं तो गलत श्वसन की आदत का प्रश्न ही कहां से उठता है ? परन्तु मनुष्य को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसका जीवन अब प्राकृतिक नहीं रह गया है । हजारों वर्षों से सभ्यता ने श्वसन की स्वाभाविकता में जबरदस्त दखल किया है | चाहे कृषि हो या उद्योग, कारीगरी हो या दस्तकारी अथवा आराम हो या अध्ययन इन सभी के कारण मनुष्य में चलने, खड़े रहने तथा बठने की ऐसी आदतों का विकास * तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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