SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है परन्तु वास्तव में यह श्वास प्रश्वास रूपी वायु जीवात्मा के नियंत्रण में रहता है और जीवात्मा उसे अपने अहंकार, पूर्वकर्म और वासना से परवश होकर चलायमान रखता है । जीवात्मा और श्वास प्रश्वास के मध्य नादबिन्दु नामक एक अपर तत्त्व है जिसे साध लेने पर परमात्म तत्त्व से वियोग नहीं होता और प्राणापान, नादबिन्दु, जीवात्मा और परमात्मा संयुक्त होकर घट शुद्ध बना रहता है । यह नादबिन्दु ही स्वरयोग है। स्वरोदय स्त्री गर्भाशय में डिम्ब के साथ वीर्य-संयोग से जो विस्फोट होकर कलल बनता है वह जीव प्रकृति संयोग कहा जाता है । डिम्ब अथवा अण्ड में बिंदु प्रवेश से जो शुरुआत होती है वह नाद और प्राण अपान से हृदयस्थ परमात्म से संयुक्तीकरण द्वारा पूर्ण होती है। जब तक देह में देही वर्तमान रहता है तब तक यह संयोग बना रहता है और देह में प्राण, माला में सूत्र की तरह समाया रहता है। गर्भावस्था में यह सूत्र मातृहृदय से जुड़ा होने से निर्द्वन्द्व और निश्चित होता है परन्तु जन्म-समय मातृ-हृदय से विमुक्ति के साथ ही सूत्र-खंडन से यकायक सबकुछ चौपट हो जाता है और नवजात शिशु तब तक मृत ही माना जाता है जब तक वह खंडित सूत्र नासिका मार्ग से बाह्यजगत् से नहीं जुड़ जाता और नाद बिन्दु से वाणी नहीं खुल जाती। __ इस अपर संयोग से पहले और मातृ हृदय से विमुक्ति के बीच भी जीव शिशु शरीर में वर्तमान रहता है और मूलाधार में अन्तर्निहित उस अदृश्य वायु से संबद्ध होता है जो अतीन्द्रिय होने से अदृश्य और अस्पर्श्य है। कतिपय मुक्तात्माओं की स्थिति इस साधारण व्यापार से भिन्न होती है और वे गर्भावस्था में ही मातृ-हृदय से पृथक् भी अपना जीवन वृत्त बना लेते हैं। ऐसे लोकोत्तर चरित भारत में अनेकों हुए हैं । ऋषि मुनियों में से सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध और शंकराचार्य प्रभृति लोग भी ऐसे ही संस्कार लेकर आये थे परन्तु उन्हें वासनाओं में फंसाया गया । महात्मा कबीर भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। बीकानेर की धरती पर भी एक ऐसा चरित्र हुआ है जो जब तब वायु में विलीन होता व प्रकट होता रहता था और २४ वर्ष की स्वल्प वय में ही वह देह मुक्त भी हो गया धा। वह चरित्र गुरू जसनाथ था। ___ साधारण जन गर्भ से मुक्ति के बाद दाई के सप्रयत्नों से प्राण-संचालन पाते हैं और ज्यों-ज्यों प्राणों की गति बढ़ती है, नाड़ियों में वायु-संचरण स्वाभाविक बनता है, जीव अपने पूर्व कर्म, अहंकार और ईषणाओं से आक्रांत होकर संपूर्ण अतीत को भूल जाता है । यह भूल शनैःशनैः बढ़ती है और शरीर के इस स्वाभाविक धर्म श्वासप्रश्वास को भी प्रभावित करती है जिससे वह रोग, भोग तथा जरा, मृत्यु क्रम से दुःख सुख भोगता है। इस दौरान जब किसी सद्गुरू से सम्पर्क हो जाता है अथवा पूर्वजन्म के सद्कर्मों के फल से विस्मृति का विनाश होने लगता है तो 'स्वरोदय' हो जाता है और रोग, शोक दूर होकर --प्राणापान, नादबिंदु, जीवात्मा, परमात्मा का अनुक्रम सधकर घट शुद्ध हो जाता है और शुद्ध घट में स्वयं राजते, स्वयं रमते ११२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524591
Book TitleTulsi Prajna 1997 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy