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"शिव-संहिता' में मानव-देह को ब्रह्माण्ड की संज्ञा दी गई है जिसके मेरू श्रृंग पर अधोमुखी पीयूषचन्द्र की आठ कलाओं से निरन्तर सुधा बरसती रहती है। यह अमृत दो अतिसूक्ष्म मार्गों से बहता है । इड़ा मार्ग से शरीर की पुष्टि के लिये मंदाकिनी जल बहता है जो शरीर के वाम भाग में ऊपर से नीचे बहता है और पिंगला मार्ग से दूध की तरह श्वेत आभा वाली दूसरी तरंग दाहिनी ओर नीचे से ऊपर जाती है । चन्द्रमा मेरूशृंग के मध्य में शरीर पुष्टयर्थ गमनागमन करता है और सूर्य मेरू मूल में स्थित होकर अपनी १२ कलाओं से दक्षिण पथ को आलोकित करता रहता है। वह वायु के साथ समस्त शरीर में भ्रमण भी करता है और जहां कहीं भी मंदाकिनी जल
और धातु आदि अवशिष्ट देखता है उसे सोख लेता है। इस प्रकार शरीर का यह व्यापार अहर्निश चलता रहता है
त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहतः ।
मेरूं संवेष्टय् सर्वत्र व्यवहारः प्रवर्तते । अर्थात् तीनों लोकों में जितने भी प्राणी हैं उन सबका समस्त व्यवहार उनके मेरूदण्ड के संवेष्टन से इसी प्रकार होता है। मेरूदण्ड-संवेष्टन को स्पष्ट करते हुए 'शिव संहिता' में कहा गया है कि इड़ा नामक नाड़ी शरीर के वामभाग में है। वह सुषुम्ना से लिपट कर आज्ञाचक्र से दक्षिण नासापुट तक गई है जबकि पिंगला नाम्नी नाड़ी दक्षिण भाग में रहते हुए मध्य नाड़ी से लिपट कर बायें नासापुट में पहुंची है। इन दोनों इड़ा और पिंगला नाड़ियों के मध्य में सुषुम्ना है जो छह स्थानों पर छह शक्तिशाली पदों से युक्त है। .. ये तीनों नाड़ियां मेरूदण्ड के समाश्रय से परस्पर गूंथी हुई एक दूसरे में ओतप्रोत हैं और 'सोम सूर्याग्नि' रूप में ही समस्त शरीर में फैली हुई हैं । इसी नाड़ी-वितान को भोगवहा कहा गया है
एता भोगवहा नाड्यो वायु संचार दक्षकाः ।
ओतप्रोता: सुसंव्याप्य तिष्ठन्त्यस्मिन्कलेवरे ।। क्योंकि इन तीनों नाड़ियों में ही अहंकार, वासना और पूर्व कर्मों से लिप्त होकर प्राण वायु समाया रहता है
प्राणो वसति तत्रैव वासनाभिरलंकृतः ।
अनादि कर्म संश्लिष्टः प्राप्याहंकार संयुतः ।। इस प्रकार जब तक प्राणवायु आत्म तत्त्व से संयुक्त रहता है, यह वायु-संचरण अविराम गति से स्वयमेव होता रहता है । बृहद् आरण्यकोपनिषद् (१.३.१३) कहता है कि जब तक यह वायु-संचरण शरीर के भीतर रहता है उसे 'प्राण' कहते हैं और जब शरीर की मृत्यु हो जाती है तो यही प्राण ब्रह्माण्ड में विलीन होकर 'वायु' कहा जाता है
अथ ह प्राणमत्यवहत् ।
यदा मृत्युमत्युच्यत स वायुरभवत् ।। जिस प्रकार परमात्म से अविद्या प्राप्त होती है और अविद्या में ब्रह्म तत्त्व से ब्रह्मा प्रकट होता है । फिर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी क्रमशः आकाश से
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तुलसी प्रज्ञा
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