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योग है। विशेष रूप से (शास्त्रीय सकेत के अनुसार) स्थान आदि व्यापार योग कहलाता है।
२. ठाणुन्नत्थालंबणरहिओ, तंतम्मि पंचहा एसो।
दुगमित्थ कम्मजोगो, तहा तियं नाण जोगो उ ।। योगशास्त्र में योग के पांच प्रकार बतलाएं हैं-- १. स्थान--कायोत्सर्ग, पद्मासन आदि आसन । २. ऊर्ण-उच्चार्यमाण शब्द । ३. अर्थ-शब्द का अभिधेय । ४. आलंबन-बाह्य प्रतिमा आदि (आलंबन योग)। ५. रहित-निरालंबन योग। रूपी द्रव्य के बिना होने वाली निर्विकल्प
समाधि । इनमें प्रथम दो कर्मयोग और शेष तीन ज्ञान योग के भेद हैं । ३. देसे सव्वे य तहा, नियमेणेसो चरित्तिणो होइ ।
इयरस्स बीयमित्तं, इत्तुच्चिय केइ इच्छंति ।।
मध्यम विघ्न - पथिक अपने गन्तव्य पर पहुंचना चाहता है, किन्तु जब वह ज्वर से पीड़ित होता है तब उसमें गमन का उत्साह नहीं रहता। इस प्रकार स्वीकृत धर्म की साधना में शारीरिक रोग ज्वर के समान होते हैं। उनके उत्पन्न होने पर साधक शास्त्रीय विधि के अनुसार 'हिताहार-मिताहार' से उनकी चिकित्सा करे और यह सोचे कि ये बाधाएं मेरे शरीर को पीड़ित कर सकती हैं, आत्मा को नहीं। इस भावना को इतना पुष्ट करे कि रोग की विभीषिका न रहे। यह मध्यम विघ्नों पर विजय पाना है। उत्कृष्ट विघ्न--पथिक मार्ग में चलते-चलते दिशामूढ़ हो जाता है, तब आगे बढ़ने का उसका उत्साह टूट जाता है। दूसरे पथिकों से प्रेरित होने पर भी वह उस ओर नहीं बढ़ता। किन्तु जब उसे मार्ग का सम्यग् ज्ञान हो जाता है या दूसरे पर श्रद्धा हो जाती है तब वह आगे बढ़ने को उत्सुक होता है। इस प्रकार मोक्ष मार्ग में प्रवत्त साधक में मिथ्यात्व-जा जाता है । तब वह गुरु के उपदेश से या मिथ्यात्व की प्रतिपक्ष भावनाओं को पुष्ट कर, मनोविभ्रम को दूर कर, साधना में आगे बढ़ सकता है । यह उत्तम
विघ्नों पर विजय माना है । (घ) सिद्धि-अपने से अधिक गुण वालों के प्रति विनय, हीन गुणवालों के प्रति
करुणा और मध्यम गुण वालों को धर्म-स्थान की प्राप्ति कराने का संकल्प
लेना। (ङ) विनियोग–अपनी उपलब्धियों को उपायपूर्वक दूसरों को उपलब्ध
कराना।
तुलसी प्रज्ञा
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