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योविशिका
० रचयिता -आचार्य हरिभद्र ० व्याख्याकार --उपाध्याय यशोविजयजी
• अनुवादक --मुनि दुलहराज (योगविशिका पर उपाध्याय यशोविजयजी ने टीका लिखी। उसका संक्षिप्त हिन्दी रूपान्तरण मुनिश्री द्वारा प्रस्तुत है ।)
१. मुक्खेण जोयणाओ, जोगो सव्वोवि धम्मवावारो।
परिसुद्धो विन्नेओ, ठाणाइगओ विसेसेणं ।। सारा परिशुद्ध' धर्म-व्यापार (प्रवृत्ति) मोक्ष से योजित करता है इसलिए वह
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१. साधारणतः मोक्ष से युक्त करने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति योग है। किन्तु वास्तव में वही प्रवृत्ति योग कहलाती है जिसमें साध्य-धर्म (जिस धर्म विशेष की हमने साधना प्रारम्भ की है) की अविकल स्मृति बनी रहे तथा साधक उसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर उपाय करता रहे। यहां परिशुद्ध विशेषण विशेष अर्थ का द्योतक है । जो प्रवृत्ति प्रणिधान आदि पांच आशयों से विशुद्ध होती है, उसे 'परिशुद्ध' कहा जाता है । पांच आशय ये हैं - (क) प्रणिधान --जिस धर्म-स्थान (साध्य विषय) की साधना स्वीकार की है,
उसकी निरन्तर स्मृति बनाए रखना। अपने से हीन गुण वालों के प्रति अनुकंपाभाव रखना । परोपकार की भावना से युक्त रहना। प्रवृत्ति -धर्म-स्थान की प्राप्ति के लिए उपाय करना। क्रिया की शीघ्र
समाप्ति की उत्सुकता से रहित होना। (ग) विघ्नजय-योग साधना में विघ्न उपस्थित करने वाले कारणों पर
विजय प्राप्त करना। विघ्न तीन प्रकार के होते हैं-हीन, मध्यम और उत्कृष्ट । हीन विघ्न – कण्टकाकीर्ण मार्ग में प्रस्थित पथिक के पग-पग पर बाधा उपस्थित होती है और जब वे काटे साफ कर दिए जाते हैं तब वह अनाकुल होकर आगे बढ़ सकता है। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त साधक के लिए शीत, ऊष्ण आदि परीषह बाधक होते हैं और उसे आकुल बना देते हैं । जब वह साधक तितिक्षा का अभ्यास कर लेता है तब वे परीषह उसे आकुल नहीं करते। यह हीन विघ्नों पर विजय पाना है।
खण्ड २२, अंक २
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