________________
कलि प्रावृषि मिथ्यादिङ् मेघच्छन्नासु दिक्ष्विह ।
खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योतन्त क्वचित् ।। वे कहते हैं कि जिस प्रकार वर्षा ऋतु में दिशायें मेघाच्छादन से सूर्यप्रकाश से वंचित हो जाती हैं और कहीं-कहीं जुगनू चमकते दीखते हैं वैसी ही स्थिति जैन समाज की है।
उन्होंने स्वयं तो जैन समाज की सेवा की ही। साथ ही अनेकों सहयोगी विद्वान् भी तैयार किए। पं० महावीर, उदयसेन मुनि, विशालकीर्ति, मदनकोति, आचार्य बालचन्द्र कवि अहर्दास, कवि विल्हण, पं० जाजाक, महीचन्द्र साहु, केल्हण, धीनाक जैसे अनेकों विद्वानों को प्रेरणा दी और प्रभूत् संख्या में सद्ग्रन्थ लिखे।
प्रस्तुत ग्रंथ 'पं० आशाधर : व्यक्तित्व और कर्तृत्व' एक अच्छा प्रयास है। पं० नेमचन्द्र डोणगांवकर ने काफी श्रम किया है, किन्तु यह ग्रंथ पं० आशाधर का आंशिक परिचय ही प्रस्तुत कर पाया है। पं० आशाधर का प्रामाणिक जीवनवृत्त उपलब्ध है और वे जैन धर्म के प्रभावक आचार्य हैं। विक्रमी तेरहवीं सदी में उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक-चारों दृष्टियों से सक्षम नेतृत्व दिया है उसे उजागर करने की आवश्यकता है । उनका एक कथन देखिए
"दिगम्बर जैनी मुद्रा तीनों लोकों में वंदनीय है, समीचीन प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप व्यवहार के लिए प्रयोजनभूत है; किन्तु इस क्षेत्र में वर्तमान काल में (१) उस मुद्रा को छोड़कर विपरीत मुद्रा धारण करते हैं। (२) द्रव्य जिन लिंग के धारी अपने को मुनि मानने वाले अजितेन्द्रिय होकर धार्मिक जनों पर भूत की तरह सवार होते हैं। (३) अन्य द्रव्य लिंग के धारी मठाधीश भट्टारक हैं जो जिन लिंग का वेश धारण करके म्लेच्छों के समान दुराचरण करते हैं। ये तीनों पुरुष के रूप में साक्षात् मिथ्यात्व है। इन तीनों का मन से अनुमोदन मत करो, वचन से गुणगान मत करो और शरीर से संसर्ग मत करो।
मन-वचन-काय से इनका परित्याग करो ॥" ऐसे मान-अभिमान वाले स्पष्ट वक्ता आचार्य का कर्तृत्व सही ढंग से उजागर करने की आवश्यकता है। प्रस्तुत प्रकाशन में और भी बहुत सी कमी रह गई हैं, इसलिए इस विषयक अधिक विस्तार से लिखा जाना जरूरी है। ८. पञ्चाल (खण्ड-८, सन् १९९५) संपादक-डॉ० ए. एल. श्रीवास्तव, प्रकाशक -पंचाल शोध संस्थान ५२/१६ सक्करपट्टी, कानपुर-२०८००१, मूल्य५०/- रुपये।
पिछले कुछ समय से पंचाल शोध संस्थान, कानपुर बहुत सक्रिय है और उसने प्रतिवर्ष एक पंचाल अंक निकाल कर अपनी सक्रियता को प्रमाणित किया है। हालांकि
१६४
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org