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________________ वार्ता-प्रसंग हृदयग्राही पाया है किन्तु काव्य सौंदर्य के लिये अपेक्षित व्यंजना की कमी बताई है। फिर भी पाठक के मन को आकृष्ट करने वाली सामग्री इसमें अवश्य है। स्मरणीय है कि इस प्राकृत प्रतिबिम्ब के प्रथम ललितांग चरित का वाराणसी से प्रकाशित संस्कृत साप्ताहिक--गांडीव में धारावाहिक प्रकाशन हुआ था। वस्तुतः मुनि विमलकुमार के सटिप्पण पाइय संगहो के बाद पाइय पच्चूसो और पाइय पडिबिबो -ये दो प्रकाशन हुए हैं । पाइय संगहो में दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, प्रश्नव्याकरण, स्थानांग, भगवती, दशाश्रुतस्कंध, ज्ञाता धर्मकथा, अन्तकृत् दशा और राजप्रश्नीय आदि से २७ प्राकृत-पाठ तैयार किए गए थे जो सन् १९८३ में प्रकाशित हुआ। उसके ठीक तेरह वर्ष बाद पाइय पच्चूसो और पाइय पडिबिबो का प्रकाशन हुआ है । इसलिए मुनि विमलकुमार की प्राकृत भाषा यात्रा अभी और परवान चढ़ेगी-इसमें कोई शक-शुबा नहीं है। ___ ग्रन्थ का प्रकाशन, साजसज्जा, गेटअप आदि सुन्दर है और मूल्य अत्यल्प होने से यह सर्व सुलभ हो गया है। -परमेश्वर सोलंकी ३. नवनीत (जैन विज्ञान विचार संगोष्ठी) प्रकाशक-ऋषि प्रकाशन, झांसी; प्राप्तिस्थान-ऋषियोगा, विपिन जैन, ९७/५ए सिविल लाइन्स, झांसी। मूल्य-- १५/- रु० । पिछले वर्ष दिनांक २९, ३० सितम्बर और १ अक्टूबर, १९९५ तथा विगत वर्ष दिनांक २६.२७,२८ अगस्त, १९९४ को क्रमशः झांसी और गुना में दो विचार संगोष्ठियों का आयोजन हुआ। दोनों संगोष्ठियों का संचालन सतना निवासी नीरज जैन ने किया और उनके सहयोगी रहे झांसी के डॉ. जिनेन्द्र जैन तथा ग्वालियर के डॉ. अभयप्रकाश। दोनों गोष्ठियों में क्रमशः उपस्थित २१ और १८ विद्वानों को मुनिश्री क्षमासागर एवं ऐलकद्वय श्री उदयसागर एवं श्री सम्यक्त्व सागर का सान्निध्य मिला। संगोष्ठियों में प्रस्तुत किए गए सभी विचार पत्रों को यहां नवनीत---शीर्षक देकर प्रकाशित कर दिया गया है और झांसी के दैनिक विश्व परिवार और पुना के डॉ० महावीर जैन द्वारा लिखा संगोष्ठियों का विवरण भी दे दिया है। गोष्ठी-सत्रों में पठित आलेखों में अनेक आलेख विचारोतेजक शोध सामग्री से भूरे पूरे हैं। श्री नीरज जैन का कर्मन की गति न्यारी, पद्मश्री यशपाल जैन का नागरिक के कर्तव्य, डॉ० राधारमणदास का मानव विज्ञान कर्म त्रिभुज, डॉ० अशोक जैन का जैन धर्म और वनस्पति विज्ञान, डॉ० अनिलकुमार जैन का भाग्य और पुरुषार्थ, डॉ० आराधना जैन का अपघटन और तप और देवेन्द्रकुमार जैन का इवोल्यूसन री ऑफ जैनिज्म आदि कुछ आलेख निश्चय ही नयी सोच और ऊहापोह को प्रचोदित करते हैं। दरअसल ऐसी संगोष्ठियों में एक ही विषय रखकर उस पर आलेख पढ़ने के बाद १६० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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