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तंत्र सम्प्रदाय का प्रवर्त्तन तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ से अधिक पुष्ट रूप में हुआ । निशीथ सूत्र एवं कुछ अन्य आगमों में सर्वप्रथम नमस्कार मंत्र और उसकी साधना पर विशेष बल दिया गया है। सूरिमंत्र एवं अन्य कतिपय विद्याओं का उल्लेख भी इन ग्रन्थों में है । पउमचरिउ, वसुदेवहिण्डी, त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित्र आदि ग्रन्थों में विद्याओं का वर्णन है । उत्तरकाल के आचार्यों में श्री सिंहतिलकसूरि ने 'मंत्रराज रहस्य' तथा 'तंत्र लीलावती' का प्रणयन किया। श्री जिनप्रभसूरि को पद्मावती देवी के वर से मंत्र-तंत्रादि का ज्ञान मिला, जिनका संग्रह 'रहस्य कल्पद्रुम' नामक ग्रन्थ में हुआ। श्री हलाचार्य का 'ज्वालिनीमत' इस परम्परा का उत्तम ग्रंथ है । इसमें मंत्रों, ग्रह, मुद्रा, मंडल, कटुतेल, वश्य मंत्र, सुगंध, स्नपन विधि, नीरांजन विधि और साधना विधि नामक दस अधिकार हैं ।
श्री सिद्धसेन दिवाकर, अकलंक देव, जिनदत्तसूरि, मुनिगुणाकर, कुन्दकुन्दाचार्य, हेमचन्द्राचार्य इन्द्रनन्दि आदि अनेक आचार्यों का जैन तंत्र साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है । अनेक मंत्र - गर्भ स्रोत्र, उवसग्गहर, नमिऊण, लघुशांति, भक्तामर कल्याण मंदिर आदि इस दिशा में उत्तम सहायक हैं। सिद्धचक्र और ऋषि मंडल मंत्रों का प्रचार भी पर्याप्त हो रहा है। भैरव पद्मावती कल्प, सूरिमंत्रकल्प, अर्जुनपताका, नमस्कार मंत्र, मंत्र चिन्तामणि आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'विद्यानुशासन' है । इस एक ही नाम की रचना विभिन्न आचार्यों ने की है यथा इन्द्रनन्दि, मल्लिषेण, सुकुमार सेन तथा मतिसागर आदि । मल्लिषेण रचित विद्यानुशासन ११ वीं शती का एक उत्तम ग्रंथ है । इसमें २४ अधिकार तथा पांच हजार पद्य हैं। इसकी विशेषता यह है कि तंत्रशास्त्र में ग्राह्य सभी विषयों का यथावत् समाकलन इसमें किया गया है । जैनाचार्यों ने यंत्र-मंत्रादि से युक्त एक विशिष्ट साधनामार्ग को 'तंत्र' कहा है । महान तंत्रज्ञ नार्गाजुन एक राजकुमार थे, किन्तु उनकी माता नागकन्या थी कहा जाता है कि एक बार एक राजकुमार शिकार खेलने के लिये आबू पर्वत पर गया वहां नागमती नामक नागराज कन्या अपनी सखियों के साथ क्रीडा कर रही थी ।
राजकुमार उसे देखकर मुग्ध हो गया और राजकुमार पर नागमती । परस्पर आकर्षण की परिणति नार्गाजुन नामक पुत्र के रूप में हुई जो वाद में बड़ा होने पर एक महान तांत्रिक हुआ । इसने अपने द्वारा सिद्ध किए हुए तांत्रिक प्रयोगों का संग्रह एक तंत्र में किया और उसे वह सदा अपनी कांख में ही रखता था। इसके आधार पर उसका नाम कसपुटी हो गया । नार्गाजुन को बौद्ध, जैन- दोनों श्रमण संघों ने अपने अपने मत का अनुयायी माना है ।
जैन साहित्य भण्डारों में अनेक हस्तलिखित ग्रंथ सुरक्षित हैं, जिनका तंत्र की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । आवश्यकता है उन्हें प्रकाशित और प्रचारित करने की । आशा है, इस ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित होगा और जैन तंत्र साहित्य का व्यापक प्रचार-प्रसार हो सकेगा ।
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- (डा० अशोक सहजानंद ) निदेशक, के. एस. फाउंडेशन
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तुलसी प्रज्ञा
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