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जैन तंत्र साहित्य
'तंत्र' शब्द 'तन्' और 'त्र' से बना है । विस्तार पूर्वक तत्व को अपने अधीन करना - यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट है, जबकि तन् पद से प्रकृति और परमात्मा तथा 'त्र' से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर 'तंत्र' का अर्थदेवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है । साथ ही परमेश्वर की उपासना के जो उपयोगी साधन हैं वे भी तंत्र कहलाते हैं । निष्कर्षरूप में हम मान सकते हैं कि तंत्र वह स्वतंत्र शास्त्र है जो पूजा और आचार पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है ।
[2] अशोक 'सहजानन्द'
तंत्र ग्रन्थों का प्रणयन सर्वप्रथम कब और कहां हुआ ? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है । उपलब्ध तंत्र ग्रन्थों में चार बातें प्रमुख हैं-ज्ञान, योग, क्रिया तथा चर्या ज्ञान विभाग में दर्शन के साथ मंत्रों के रहस्यात्मक प्रभाव का वर्णन किया गया है । यंत्र और मंत्र भी इसी में आ जाते हैं। योग विभाग में समाधि और योग के अन्यान्य अंगों की चर्चा प्रमुख है। साथ ही यह भी दिखाया गया है कि योग के प्रभाव से / अभ्यास से अलौकिक सिद्धियों की प्राप्ति सहज हो जाती है । क्रिया विभाग में मूर्तिपूजा का विधान प्रमुख है । मूर्ति और मंदिर सम्मिलित है । चर्या विभाग में उत्सव, व्रत एवं सामाजिक अनुष्ठानों का विवरण है। तंत्र ग्रंथों का दार्शनिक दृष्टि से अनुशीलन करने पर तीन प्रकार का विमर्श प्रतीत होता है— द्वैत विमर्श, अद्वैत विमर्श तथा द्वैताद्वैत विमर्श । देवता भेद से इसके अनेक भेद हैं जिनमें बहुचर्चित हैं - वैष्णव तंत्र, शैव तंत्र, शाक्त तंत्र, वौद्ध तंत्र और जैन तंत्र |
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आद्य तीर्थंकर ऋषभ देव जैन तंत्र के प्रवर्तक माने जाते हैं । ऋषभ देव के पुत्र को नागराज ने आकाशगामिनी विद्या दी थी। इसी प्रकार गंधर्व और पंनगों को भी नागराज ने ४८ हजार विद्याएं दी थीं। इसका वर्णन वसुदेवहिण्डी के चौथे लम्भक में प्राप्त होता है । विद्याओं के धारक विद्याधर होते हैं । दिगम्बर ग्रन्थों में ५०० महाविद्याओं तथा ५०० विद्याओं का वर्णन है । श्वेताम्बर ग्रन्थ - समवायांग के विधानुवाद में १५ वस्तुएं ली गई हैं। जैनाचार्यों के चार कुलों में एक विद्याधर कुल था । विधाचारण मुनि और ऋद्धिवाले मनुष्यों में चरण सिद्धि प्राप्त होते थे । सिद्धियां, लब्धि, तप द्वारा प्राप्त होती हैं । स्त्रीदेवताधिष्ठित विद्या जपादिसाध्य तथा पुरुषदेवताधिष्ठित विद्या मंत्रपाठसाध्य मानी गई हैं ।
खण्ड २२, अंक २
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