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________________ उपमा के चार तत्त्व होते हैं-उपमेय, उपमान, साधर्म्य वाचक और साधारण धर्म, उपमा को सभी अलङ्कारों में श्रेष्ठ समझा जाता है। प्राचीनता, व्यापकता रमणीयता एवं सौन्दर्य-प्रियता की दृष्टि से उपमा का अत्यधिक महत्त्व है। श्रीहर्ष उपमा के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। इनकी उपमायें सहज एवं स्वाभाविक हैं। लोक, शास्त्र, प्रकृति जगत् से सम्बद्ध उपमाओं का सुन्दर प्रयोग 'रत्नावली' में हुआ है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं --- जितमुडुपतिना नमः सुरेभ्यो द्विजवृषभा निरुपद्रवा भवन्तु । भवतु च पृथिवी समृद्धशस्या, प्रतपतु चन्द्रवपुर्नरेन्द्रचन्द्रः ॥ (I-५) ___ अर्थ-चन्द्रमा (लक्षणा से चन्द्रवंशी राजा श्रीहर्ष) की विजय हुई। (अतः) देवताओं को नमस्कार है। द्विजवर बाधाओं से रहित हों। पृथ्वी शस्य सम्पन्न हो। राजश्रेष्ठ (श्रीहर्ष) चन्द्रमा के समान आह्लादक शरीर धारण कर प्रताप प्रकट करें। उक्त श्लोक में उपमा अलंकार की छटा दर्शनीय है । द्वितीय उदाहरण प्रत्यग्रमज्जन विशेष विविक्तकान्तिः । कौसुम्भरागरुचिरस्फुरदशुकान्ता ॥ विभ्राजसे मकरकेतनमर्चयन्ती । बालप्रवालविटपिप्रभवा लतेव ॥ (I-२१) कामदेव की पूजा करती हुई, सद्यः स्नान करने के कारण अत्यन्त निर्मल कान्ति वाली और कुसुंभी रंग के कारण सुन्दर चमकते हुए अंचले वाली तुम नव पल्लव वाले वृक्ष पर उत्पन्न लता के समान शोभित हो रही हो। इसके अतिरिक्त अन्य भी कई स्थलों पर उपमा अलंकार का प्रयोग ग्रन्थकार ने किया है। __ऊपर विवेचित अलंकारों के अतिरिक्त श्लेष, अप्रस्तुतप्रशंसा, उदात्त, अतिश्योक्ति, स्मरण, विभावना, उन्मीलित, प्रतीप, असंगति, पर्यायोक्ति, अनुगुण आदि अलंकारों का प्रयोग भी 'रत्नावली' नाटिका में कुशलतापूर्वक किया गया है। १५२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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