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________________ न मे दोषोऽस्तीति त्वमिदमपि च ज्ञास्यसिमृषा । किमेतस्मिन् वक्तुं क्षममिति न वेद्मि प्रियतमे ॥ अर्थात् प्रसन्न हो - यह मैं कहूं तो यह क्रोध के अभाव में ठीक नहीं बैठता । फिर ऐसा नहीं करूंगा - यह (कहूं तो यह ) दोष का स्वीकार हो जायगा । मेरा दोष नहीं है - यह ( कहूं तो इसे ) भी तुम मिथ्या समभोगी । प्रियतमे ! इस प्रसंग में क्या कहना उचित है, यह मैं नहीं जानता । यहां वाक्यार्थ हेतुक होने से काव्यलिङ्ग अलङ्कार है । २. उत्प्रेक्षा 'उत्प्रेक्षा' शब्द उत् एवं प्र उपसर्ग पूर्वक ईक्ष् धातु से बना है—उत्कृष्ट पदार्थ की सम्भावना या बलपूर्वक देखना । इस अलंकार में उपमान या अप्रस्तुत को प्रकृष्ट रूप से देखने का वर्णन होता है । साहित्यदर्पणकार के अनुसार 'उत्प्रेक्षा' वह अलंकार है जिसे अप्रकृत के रूप में प्रकृत की सम्भावना कहा करते हैं । भवेत्संभावनोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य परात्मना । " मम्मटाचार्य ने प्रकृत (उपमेय ) की अप्रकृत ( उपमान) के साथ एकरूपता या तादात्म्य की सम्भावना को उत्प्रेक्षा कहा है ----- संभावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । " आचार्य दण्डी के मतानुसार अन्य प्रकार से स्थित चेतना या अचेतन पदार्थ की अन्य प्रकार की वस्तु के रूप में सम्भावना करना उत्प्रेक्षा अलंकार है । उन्होंने उत्प्रेक्षा वाचक शब्दों में मन्ये, शंके, ध्रुवम्, प्रायः और इव आदि को कहा हैअन्यथैव स्थिता वृत्तिश्चेतनस्येतरस्य वा । अन्यथोत्प्रेक्ष्यते यत्र तामुत्प्रेक्षा विदुर्यथा ॥ मन्ये शङ्के ध्रुवंप्रायो नूनमित्येव मादयः । उत्प्रेक्षा व्यंज्यते शब्दः इव शब्दोऽपि तादृशः ॥" 'रत्नावली' नाटिका में 'उत्प्रेक्षा' अलंकार का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है । कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं तस्त्रः स्रग्दामशोभां त्यजति विरचितामाकुलः केशपाशः । क्षीबाया नूपुरौ च द्विगुणतरमिमौ कन्दतः पादलग्नो ।। व्यस्तः कम्पानुबन्धादनवरतमुरो हन्ति हारोऽयमस्याः । क्रीडन्त्याः पीडयेव स्तनभरविनमन्मध्यभङ्गानपेक्षम् ।।' १३ ( मद्य सेवन से ) मतवाली और कुचों के भार से झुकी हुई कमर के टूटने की परवाह किये बिना नाचती हुई इस ( वनिता) का खुला हुआ तथा बिखरा हुआ जूड़ा मानो पीड़ा के कारण विशेष रूप से बनाई गई पुष्पमाला की शोभा को त्याग रहा है; पैरों से चिपकी हुई ये पायल ( मानो पीड़ा कारण ) दुगुना चिल्ला रही हैं, लगातार कम्पन के कारण डोलता हुआ यह हार (मानो पीड़ा के कारण ) निरन्तर छाती पीट रहा है । के १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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