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________________ प्रतीत होती है। महाकवि श्रीहर्ष की रचनाओं में अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक दिखता है । उनमें अभीष्ट अर्थ की अभिव्यञ्जना में अलंकार सहायक हुए हैं। श्रीहर्षदेव के तीन ग्रन्थ हैं(१) प्रियदर्शिका (२) रत्नावली और (३) नागानन्द । इनमें द्वितीय रत्नावली चार अङ्कों की एक नाटिका है। इस नाटिका में लगभग बाइस अलङ्कारों का प्रयोग मिलता है। उनमें कुछ अलङ्कारों का संक्षिप्त वर्णन यहां किया जा रहा है - १. काव्यलिङ्ग इसमें काव्य तथा लिङ्ग दो शब्द हैं, जिनका अर्थ है-काव्य का कारण अर्थात् ऐसा कारण जिसका वर्णन काव्य में किया जाय । अभिप्राय यह है कि कवि जिस कार्य को सिद्ध करना चाहता है उसका कारण वाक्यार्थ अथवा पदार्थ में दे देता है । साहित्य दर्पणाकार के अनुसार 'काव्य लिङ्ग' वह अलङ्कार है जिसे किसी अर्थ के उपपादन के लिए 'वाक्यार्थ' या 'पदार्थ के हेतुरूप से उपनिबन्धन में देखा जाता है हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्गं निगद्यते ।' ___ काव्यप्रकाशकार मम्मट ने कहा है कि हेतु का वाक्यार्थ अथवा पदार्थ रूप में कथन करना काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है __ काव्यलिङ्ग हेतोर्वाक्यपदार्थता । "रत्नावली' नाटिका के प्रणेता काव्यलिङ्ग अलङ्कार के प्रयोग में कुशल हैं। उन्होंने नाटिका के प्रथम श्लोक (जो कि मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत है) में ही काव्यलिङ्ग अलङ्कार का साधु प्रयोग किया है पादानस्थितया मुहुः स्तनभरेणानीतया नम्रतां । शम्भोः सस्पृहलोचनत्रयपथं यान्त्या तदाराधने ।। ह्रीमत्या शिरसीहितः सपुलकस्वेदोद्गमोत्कम्पया। विश्लिष्यन्कुसुमाञ्जलिगिरिजया क्षिप्तोऽन्तरे पातु वः ॥' अर्थात् शंकर की आराधना में पैरों के अगले भाग पर खड़ी हुई, स्तनों के भार से बार-बार झुकती हुई शंकर के अनुरागयुक्त तीनों नेत्रों के मार्ग पर जाती हुई (अर्थात् शिव द्वारा स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखी जाती हुई), रोमांच, पसीने तथा कम्पन से युक्त होती हुई और लज्जा करती हुई पार्वती के द्वारा (शंकर के) मस्तक पर (चढ़ाने के लिए) चाही गई, (किन्तु) फेंकी जाने पर (महादेव और पार्वती) के बीच में बिखरती हुई पुष्पाञ्जलि आप लोगों की रक्षा करें। यहां अंजलि के बिखरने में 'स्तनभरेण' से लेकर 'ह्रीमत्या' तक के पद हेतु हैं, इसलिए इस श्लोक में काव्यलिङ्ग अलङ्कार है। प्रसीदेति ब्र यामिदमसति कोपे न घटते। करिष्याम्येवं नो पुनरिति भवेदभ्युपगमः॥ पण्ड २२, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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