SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वह वाणी उत्कर्ष को प्राप्त होती है जो कि सौन्दर्य का बोध करवाती है। ‘णंदंनु' शब्द टुनदि (अतिशय आनन्दे) से सम्पन्न होता है । अतः इसका लक्ष्य मात्र आनन्द की स्थापना है। फुरउ' __इस पद के द्वारा कवि ने यह कामना की है कि वैदर्भी, मागधी और पाञ्चाली रीतियां हमारे काव्य में स्फुरित हों। स्फुरणा शब्द अपने आप में गूढ़ अर्थ को छिपाए हुए हैं। यह भी इन्द्रियातीत आनन्द का परिचायक है। स्फुरणा की क्रिया कभी भी शारीरिक स्तर पर नहीं हुआ करती है। वह तो अन्तः आनन्द से ही संभव हो सकती है। अत: फुरर शब्द का प्रयोग कवि के अन्तः आनन्द के भावों का प्रकटीकरण है। स्फुरणा का अर्थ है-उत्तरोत्तर विकासावस्था की प्राप्ति । यह तभी घटित होता है जब कवि या कलाकार अन्तश्चेतना की आनन्दमयी स्वरलहरियों में निमज्जित रहता है। विलिहंतु विलिहंतु का अर्थ है आस्वादन । रूप का आस्वादन चेतना के स्तर पर ही संभव है । शारीरिक स्तर पर तो रोमांच ही हो सकता है। __ कवि इस ग्रथ को पढ़ने की नहीं, देखने को नहीं बल्कि आस्वादन करने की प्रेरणा दे रहा है। किसी वस्तु का आस्वादन तभी किया जा सकता है जब उसे चबाचबा कर खाया जाए। कवि इस बात से अभिज्ञ था कि जो बिना चबाये ही इस ग्रंथ को निगलने की कोशिश करेंगे, उन्हें यह ग्रंथ वैसे ही दुःखदायी हो सकता है जैसे बिना चबाया भोजन उदर को दुःखदायी होता है। यहां आस्वादन शब्द का प्रयोग तह तक पहुंचकर प्रसन्नता में प्रतिष्ठित हो सकता है जो आस्वादन सामर्थ्य से युक्त हो, भग्नावरणचित्तविशिष्ट हो, विमलमति सम्पन्न हो। एक ही श्लोक में हमें इतने विशाल अर्थ को छुपाए हुए ये पद प्राप्त हुए हैं। द्वितीय जवनिका में आंगिक सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा गया है अत्थाणीजणलोअणाण बहला लावण्णकल्लोलिणी। अर्थात् वह सभासदों के नेत्रों के लिए लावण्य की विस्तृत कल्लोलिनी (तरङ्गवती नदी) है। यहां लावण्य शब्द का प्रयोग केवल आंगिक सौन्दर्य को ही प्रकट नहीं कर रहा है। लवण का अर्थ श्रेष्ठरस होता है जो सर्वजन प्रिय होता है । क्योंकि कहा गया है-लवण"..'स्यात्पटुरसान्विते । ..लवण के भाव को लावण्य कहते हैं- लवणस्य भावः लावण्यम् । अर्थात् रस का उद्रेक जहां हो उसे लावण्य कहते हैं । रूप की अनाविल छटा को लावण्य कहते हैं। लावण्य कल्लोलिनी का अर्थ हुआ-रसमयी नदी जिसे देखकर सहज ही चित्त द्रवित हो जाए। सोहग्गपालि' सौभाग्य की आश्रयभूता अर्थात् परम सौभाग्यशालिनी। सुभग शब्द से सौभाग्य - तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy