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________________ श्री विश्वनाथ मिश्र ने साहित्यलहरी के रचनाकार को नन्दनन्दनदास के लिए रचना करनेवाला 'नवीन सूर' माना है। वंश-परिचय वाले पद के बारे में उनका मत है कि "सरदार कवि ने सुनी सुनाई वातों के आधार पर इसकी रचना की है ।"५ रचनाकाल के बारे में उनको सम्मति है--"सूरसागर के अनेक हस्तलेख मिलते है। उनके भ्रमरगीत के भी बहुत से हस्तलेख मिलते हैं । पर साहित्यलहरी का कोई हस्तलेख खोज में आज तक प्राप्त नहीं हुआ ।.....साहित्यलहरी में जिस तरह के दृष्टिकूट आए हैं उस प्रकार के दृष्टिकूटों की रचना एक तो सूरदास के लिए यों भी सम्भव नहीं, क्योंकि वे कीर्तन के लिए मुखाग रचना किया करते थे। दूसरे जैसी पच्चीकारी दृष्टिकटकों में की गई है वैसी हिन्दी के रीति कवियों की विशेषता है।....." इसीलिए मेरा अनुमान है कि साहित्यलहरी का निर्माण या तो सरदार कवि के कुछ पहले हुआ था या सरदार कवि के समय में ही हुआ । इस दृष्टि से विचार करने पर साहित्यलहरी का निर्माणकाल सं. १९१७ जान पड़ता है । 'रस' का अर्थ 'नौ' लेना चाहिए। ......."सरदार कवि का रचनाकाल सं. १९०२ से १९४० तक माना गया है।" मिश्रजी ने यहां पाठकों को बड़ी उलझन में डाल दिया है। साहित्यलहरी की टीका का रचनाकाल सरदार कवि ने यों दिया है : --- संवत् वेद सु शून्य ग्रह, औ आतमा विचार । कार्तिक सुदि एकादशी, समुझि शुद्धवार । अर्थात् टीका सं. १९०४ में लिखी गयी । अतः मिश्री के लेख को आप्त वाक्य माने यो सरदार कवि ने टीका पहले रच डाली, साहित्यलहरी वाद में रची गयी। श्री बटेकृष्ण का मत मिश्रजी से इस अंश में भिन्न है कि वे साहित्यलहरी के दृष्टिकूट पदों को सूर की रचना ही मानते हैं। उनके मत में संग्रहकर्ता का नाम तो ज्ञात नहीं पर भारतेन्दु और सरदार कवि के समय उसका साहित्यलहरी नहीं था, न उसमें वंशावलीवाला पद ही था। भारतेन्दु ने उसे "सूर- शतक" नाम दिया था । "वंशावलीवाला पद तथा कुछ और" जब उसमें मिलाया गया, तभी साहित्यलहरी नाम पड़ा । बाद में मिलाया गया "कुछ और" क्या था यह वे नहीं बताते । तथापि 'साहित्यलहरी' नाम 'मुनि पुनि रसन के रस लेख' पद में ही मिलता है अतः उनका इंगित इसी ओर हो सकता है । भारतेन्दु और सरदार कवि के बाद का समय १९७७ ही हो सकता है। अतः श्री बटेकृष्ण का मत मानने से सं. १६७७ या सं. १९१७ का सुझाव यों ही निरस्त हो जाता है। साहित्यलहरी के दो पदों को लेकर चले विवाद की लपेट में भारतेन्दु सम्पादित 'सूर-शतक' भी आ गया है । श्री बटेकृष्ण के लेख से 'सूरशतक' की विषय-वस्तु ‘साहित्य लहरी' विभिन्न नहीं लगती । अन्तर केवल नाम और कुछ बढ़ाये गये पदों का है । श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के मत में 'सूर-शतक' की विषय-वस्तु 'साहित्यलहरी' से अवश्य ही भिन्न रही होगी। उन्होंने बताया है कि "सूरसागर में न तो साहित्यलहरी के से कठिन दृष्टिकूटक हैं न साहित्यलहरी का कोई दृष्टिकूटक इसमें आया है"। और सूरशतक के बारे में उनकी सूचना है--"भारतेन्दु बाबू को सूरदास के वे दृष्टिकूटक जो तुलसो प्रज्ञा १२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524588
Book TitleTulsi Prajna 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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