________________
'साहित्यलहरी' के दो पद
उपेन्द्रनाथ राय
जब कुछ जाने-माने विद्वान् किसी ग्रन्थ को या उसके किसी अंश को अप्रामाणिक घोषित कर देते हैं तब एक परम्परा चल पड़ती है। परम्परानुकूल लिखने में सुविधा यह है कि ज्यादा सोचने-विचारने की आवश्यकता नहीं पड़ती और असंगत बातें लिखने पर भी प्रतिवाद नहीं होता (या यों कहें कि जानी-मानी पत्रिकाओं में वह छपता ही नहीं।) साहित्यलहरी के दो पदों को लेकर जिस प्रकार की बातें लिखी जा रही हैं वे ऐसी ही परम्परा के उदाहरण पेश करती हैं। मतभेद और अनिश्चय
___एक सम्पादकजी साहित्यलहरी के रचनाकाल सम्बन्धी पद का अर्थ सं. १६७७ बताते हुए कहा है-"यह पद सूरदास का नहीं हरिरायजी का है जिन्होंने साहित्यलहरी के १०८ पदों का संग्रह किया था ।" सम्पादकजी ने यह नहीं बताया कि वल्लभ-सम्प्रदाय के ग्रन्थ हरिरायजी द्वारा रचित और सम्पादित ग्रन्थों में इसका उल्लेख क्यों नहीं करते । सं. १६७७ में सूर जीवित नहीं थे अतः उनकी अनुमति या इच्छा का प्रश्न ही नहीं उठता। संग्रह हरिरायजी ने किया । फिर भी सूर का माम पद में क्यों आ गया ?
डा. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय को सं, १६७७ तो मान्य लगा पर साहित्य-लहरी को सुर के पदों का संग्रह मानना रुचा नहीं। उनकी घोषणा है -. "साहित्य-लहरी को अप्रामाणिक मानना ही उचित होगा।.......'मुनि पुनि रमन के रस लेख' का अर्थ भी विद्वानों ने सं. १६७७ वि. अर्थात् १६२० ई० माना है जो सूर की मृत्यु के बाद का समय है । उसमें वर्णित अलंकार और नायिक-भेद भी सूर जैसे भक्त के लिए उचित नहीं जान पढ़ता। वास्तव में 'साहित्य-लहरी' किसी भाट की रचना है।"२
____ 'रसखान का समय' लेख में प्रसंग-भ्रष्ट होकर और भी चमत्कार लेखक ने दिखाया - "एक बार भारतेन्दु बाबू हरिचंद्र ने सूरदास के दृष्टिकूटों का संग्रह' सूर • शतक' के नाम से छपाया था जिसका हस्तलेख विलायती नीले कागज पर लिखा हुआ उन्हें सम्भवतः सरदार कवि या किसी भाट से काशी में मिला था। पीछे और किसी ने भाटों की वंशावली वाला पद तथा कुछ और भी उरामें मिलाकर साहित्यलहरी के नाम से सूरदास का एक नया ग्रंथ ही छपा कर खड़ा कर दिया और सूरदास को ब्रह्मभट कहने लगे। लेखक श्री बटेकृष्ण ने यह नहीं बताया कि उन्हें यह जानकारी कैसे प्राप्त हुई। खण्ड २२, अंक २
१२७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org