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"पुरुष" या "आत्मा" ये दो तत्त्व जगत् के परम कारण या तत्त्व हैं। इनमें "प्रधान" जड़ और "पुरुष" चेतन है । वस्तु जगत् के समस्त विषय " प्रधान" से उत्पन्न हैं
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जगत् के परम तत्त्व की खोज के विकास क्रम में मुण्डक उपनिषद्, जड़ और चेतन की कल्पना से, आगे बढ़ जाता है तथा इन दोनों को अर्थात् जड़ तथा चेतन की उत्पत्ति का कारण एक "दिव्य पुरुष" को स्वीकार करता है । मुण्डक उपनिषद् के अनुसार जगत् की उत्पत्ति के पहले एक दिव्य, अमूर्त, अज, अप्राण, अमन, शुभ्र तथा अक्षर पुरुष था । उसी से प्राण, मन, इन्द्रिय, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा जगत् के अन्य विषयों की उत्पत्ति हुई । "" अर्थात् जड़ और चेतन सभी विषयों की उत्पत्ति "पुरुष" से हुई। इस मत के सदृश एक अन्य मत मिलता है, जिसमें "प्रजापति" को जड़ और चेतन का कारण माना गया है अर्थात् " प्रजापति" को जगत् का परम तत्त्व माना है । प्रश्न उपनिषद् के अनुसार जगत् की उत्पत्ति के पहले "प्रजापति" था ।" उसने तप किया और सबसे पहले " रयि" ५६ ११५७ तथा "प्राण को उत्पन्न किया और इन दोनों से जगत् के अन्य विषयों को बनाया । किन्तु श्वेताश्वतरोपनिषद् में तीनों को - सर्वसमर्थ, असमर्थ तथा भोग्य सामग्री से युक्त तत्त्व को अजन्मा माना है अर्थात् परमात्मा, आत्मा और प्रकृति, अन्य शब्दों में, जड़, चेतन और उनका स्वामी इन तीनों को तत्त्व रूप में स्वीकार किया गया है । किन्तु आगे कहा गया है कि इन तीनों के "ब्रह्म रूप" में जानना या प्राप्त करना चाहिये । श्वेताश्वतरोपनिषद् का यह विचार "ब्रह्म" के परम तत्त्व होने का संकेत करता है ।
मुण्डक उपनिषद् में "ब्रह्म" को परम तत्त्व मानकर उसी से जगत् की उत्पत्ति मानी गई है ।" मुण्डक उपनिषद् के अनुसार "ब्रह्म" संकल्प रूप तप से वृद्धि को प्राप्त होता है । उससे अन्न उत्पन्न होता है, अन्न से प्राण, प्राण से मन, मन से अन्य विषय उत्पन्न होते है ।" मुण्डक उपनिषद् के विपरीत माण्डूक्योपनिषद् में, यद्यपि "ब्रह्म" को परम तत्त्व माना है, किन्तु ब्रह्म से जगत् की उत्पत्ति नहीं मानकर, जगत् को ही ब्रह्म बताया है ।" इस मत का उल्लेख सूत्रकृतांगसूत्र" में भी मिलता है । उसमें कहा गया है कि जैसे एक पृथ्वी पिण्ड नाना रूपों में दिखाई देता है उसी प्रकार समस्त जगत् एक 'विष्णु'" है, जो नाना रूपों में दिखाई देता है ।
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जगत् के कारणसम्बन्धी उपर्युक्त मतों के विपरीत कुछ अन्य दार्शनिकों" ने जगत् का कोई कारण नहीं माना। उन दार्शनिकों के अनुसार जड़ और चेतन अर्थात् आत्मा और जगत् तथा उसके समस्त विषय बिना किसी कारण के उत्पन्न होते हैं, ६ अर्थात् उनकी उत्पत्ति का कोई कारण नहीं है, वे अकारण उत्पन्न होते हैं ।
अन्त में, संक्षेप में कहा जा सकता है कि विभिन्न वैदिक दार्शनिकों ने भिन्नभिन्न तत्त्वों को जगत् के कारण के रूप में माना, अर्थात्, किसी ने 'असत्' को जगत् का मूल कारण अथवा तत्त्व माना, किसी ने 'सत्' को तो किसी ने 'सत्' - 'असत् ' को, किसी ने 'जल' को, तो किसी ने 'अग्नि' को, किसी ने 'वायु' को, तो किसी ने 'आकाश' को, किसी ने 'पांच महाभूतों' को, तो किसी ने 'पुरुष' एवं 'प्रधान' को, किसी ने 'दिव्य पुरुष' को, तो किसी ने 'प्राण' को, किसी ने 'आत्मा' को और किसी
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तुलसी प्रज्ञा
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