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अणहर मांझे जो हारू सूतेरउ । सोहह्व रावउ सो एभुज ठेरउ || पारड़ी आंतरे थणहरू कइंसउ ।' २५. / सरय जलय विच चाडा जइसउ । सुतेर हारू रोमावलि कसिअउ । जाणि गांगह जलु जउणहि मिलिउ || पेह्नअ लवाही जे चंदहार | वीजर चांदहि ते आंगहि माडण अंगेर २६. कांठी / वेटी
चंदराइ ॥
उजालु |
वंडरो
आलु ॥
काछा पेहरण
के रिज
सोह |
आन सराहत सुणि गहि खोह || विउढणु सेंदुरी से लदही कीजइ । ' भउ देखि तारउ सव जणु खीजइ ॥ धवलर कापड़ उढिअल
कइसे । *
२७. मुह ससि / जोहं पसारेल जइसे ।। अइ सोउ वेसु जो गउडिहुं केरउ | छाडि एहु भव दिउ सवु तारउ || जेहर रूचइ तेहर
तोरे वेसहि आधिक
अइसी गउडिज राउले
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बोलू
मोलू ॥
पइसइ ।
२८. सो जणु ला / छि मांडेउ दीपइ ॥ ० ॥ *॥*॥'
( विवेचना ) एक के पतुअउ
( भइ ) बोलs |
१. पारड़ी = कांचली (महीन वस्त्र की ) -- परादिका २. चाडा= = छोटी मटकी
गोड तु सबउ (बरऊ) इस जे पुणु मालवीउ वेसुहि
आवतु काम्वदेउ जोउ आपणाह हथिआर हुं भूलइ ॥
३. सेंदुरी सेलदही धारीदार महिन वस्त्र
४. बहू-बेटी को ऊपर से सफेद कपड़ा ओढ़ना होता है । ५. सोजणू लाछि मांडेउ = छोटे मंदिर में जैसे लक्ष्मी ।
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संभवत: ऐसी ही रमणी के लिए कवि - बब्बर की भी निम्न उक्ति हैखंजण-जुअल अण वर उपमा, चारूकणअ लई मुअ जुअ सुसमा । फुल्ल कमल मुहि गअ वर गमणी, कासु सुकिअ फल विहि गढ़ तरूणी || ६. हमारी समझ मे कवि ने पांच ही तरूणियों का परिचय दिया है । फिर उनके हाव भाव की विवेचना की है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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