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के सामने प्रस्तुत करना होगा । जब तक समाज से हिंसक परिस्थितियों-सामूहिक नरसंहार, उत्पीड़न, दबाव और शोषण तथा विदेशीकरण का उन्मूलन नहीं हो जाता तब तक, मानव की सुरक्षा, स्वतंत्रता, अस्तित्व, कल्याण सम्भव नहीं है और शांति की अपेक्षा रखना तो दूर की बात । शांति एक ओर तो समस्त हिंसक घटनाओं के निराकरण की अपेक्षा रखती है तो दूसरी ओर यह समाज के सर्वाङ्गीण विकास का पर्याय है । गांधी की शिक्षा में केवल शांति शिक्षा का ही प्रावधान नहीं है बल्कि तथ्य तो यह भी है कि यह शांति के लिए ही शिक्षा है । समस्त शिक्षा लक्ष्य मानव की सर्वाङ्गीण शक्ति की प्राप्ति है इसलिए शांतिपरक मूल्यों का विकास शिक्षा का उद्देश्य है ।
मूल्यपरक शिक्षा की पद्धति
मूल्यपरक शिक्षा के विकास की सबसे जटिल समस्या इसकी पद्धति है क्योंकि सभी पद्धतियों से मूल्यपरक शिक्षा का विकास नहीं हो सकता । गांधी ने इसके विकास के लिए बिल्कुल ही वैज्ञानिक पद्धति का विकास किया है जिसमें समवाय पद्धति उल्लेखनीय है । कोई भी मूल्य तत्त्वों से बिल्कुल अलग नहीं होता। इसलिए जीवन और क्रिया रूपी तथ्यों से उन्हें अलग कर विकसित नहीं किया जा सकता । दूसरे शब्दों में आचरण एवं व्यवहार में बिना प्रवचन, भाषण एवं कक्षाओं के पाठ्यक्रम के द्वारा मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जा सकती है । कक्षा की पद्धतियों से कुछ सूचनाएं दी जा सकती है। कुछ दूर तक तर्कना शक्ति प्रदीप्त की जा सकती है परन्तु इस पद्धति से शिक्षार्थियों के हृदय के भावों को तथा मानवीय संवेदनाओं को जगाया नहीं जा सकता है इसलिए भावात्मक और आध्यात्मिक मूल्यों के विकास के लिए चरित्र निष्ठा, शुद्ध और पवित्र शिक्षक की आवश्यकता होती है । एक नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षक ही नैतिकता एवं अध्यात्मिकता की सच्ची शिक्षा
दे
सकता है । इसीलिए गांधी कहा है कि एक अध्यात्मिक रूप से समर्थ शिक्षक सैकड़ों मील दूर रहकर भी विद्यार्थियों को प्रेरित कर सकता है । इसलिए मूल्यपरक शिक्षा के विकास में शिक्षकों की अहम् भूमिका हो जाती है ।
अत: आज मानवीय मूल्यों के संकट के काल गांधी की मूल्यपरक शिक्षा और शिक्षा पद्धति से ही हमें रोशनी मिल सकती है । यदि मूल्यपरक शिक्षा को भी हम विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में आज की शिक्षा की भांति चारदीवारियों के अन्तर्गत कैद करना चाहेंगे तो शायद उससे बहुत कुछ लाभ होने वाला नहीं है । सच्चा लाभ तो तब होगा जब मूल्यों को हर व्यापार से जोड़ने का प्रयास किया जाएगा और मूल्यपरक व्यक्ति को समाज में समुचित प्रतिष्ठा मिलेगी । समाज का यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि वर्तमान व्यवस्था में मूल्यपरक व्यक्ति समाज से समुचित मूल्यांकन के अभाव में कटते जा रहे हैं और सामाजिक दायित्व मूल्यहीनों के हाथों में समर्पित किया जा रहा है । भीड़तंत्र, जातितंत्र, वोटतंत्र और अर्थतंत्र के सहारे हम मूल्यतंत्र की ओर प्रस्थान नहीं कर सकते। इसके लिए तो गुणतंत्र, समाजतंत्र,
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तुलसी प्रज्ञा
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