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गया है । प्रजापति से प्राप्त श्रुतिपाठ नित्य है । केवल शाखा भेद से उसमें विकल्प हैं।"
अष्टक और वर्गों में विभक्त संहिता का उत्तर भारत में कम प्रचार हुआ और शाकल तथा उसके शिष्यों द्वारा तैयार की गई निर्भुज संहिता, प्रतृण्ण संहिता, क्रम संहिता, पद संहिता और प्रकृति संहिता आदि ने दाशतायी संहिताओं के रूप में प्राधान्य पालिया । ऐतरेय ब्राह्मण (१४५) में लिखा है
यदस्य पूर्वमपरं यदस्य, यद्वस्य परं तद्वस्य पूर्वम् ।
अहेरिव सर्पणं शाकलस्य, न विजानन्ति यतरत् परस्तात् ॥
अर्थात् शाकल संहिता का जैसा आदि है वैसा ही अन्त है और जैसा अन्त है। वैसा ही आदि है । जिस तरह सर्प की चाल आदि से अन्त तक एक समान होती है, इसी तरह शाकल संहिता का क्रम भी एक समान रहता है । फलतः बाष्कल आदि की अष्टक वर्ग संहिताओं में मंत्र - संख्या और वर्ग संख्या शाखा भेद से बढ़ गयी — ऐसा दीख पड़ता है ।
फिर भी ऋग्वेद के मण्डल - एक में 'वृजनं जीरदानुम्' -अन्त वाले, मंडल-दो में 'विदथेषु सुवीराः ' : ' - अन्त वाले, मण्डल - तीन में 'सञ्जितं धनानाम्' - अन्त वाले, मंडल - चार में 'रथ्यः सदासा' - अन्त वाले - इत्यादि सूक्तों का क्रम सकारण है । इसी प्रकार मण्डल - दस के ५८वें सूक्त के प्रत्येक मंत्र में 'मनो जगाम दूरकम्' और 'क्षयाय जीवसे' पद हैं। मंडल - १ के ८०वें सूक्त में ' अर्चन्ननु स्वराज्यम्' और मण्डल - २ के
१२ वें सूक्त में 'स जनास इन्द्रः' आदि पादों का विनियोग, ऋग्वेद के निश्चित स्वरूप की ओर इंगित करते हैं । वह स्वरूप आज की संहिताओं में गडमड हुआ दीख पड़ता है । इसका एक उदाहरण ऋग्वेद के दशवें मंडल के १२१ वें सूक्त में देखा जा सकता है; जहां 'कस्मै देवाय हविषा विधेम :- -अन्त वाली १० ऋचाओं में, वर्तमान में केवल ९ ही ऋचाएं हैं और निम्न दशवीं ऋचा अर्थववेद ( ४.२.८ ) में जा मिली है
आपो वत्सं जनयंतीगंर्भभग्रे समैरयन् ।
तस्योत जायमानस्य उल्व आसीद्विरण्ययः । कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
सन्दर्भ
* अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन के ३७वें रोहतक अधिवेशन में पठित आलेख १. स ऋचो व्योहत द्वादश बृहती सहस्राणि,
एतावत्यो हि ऋचो याः प्रजापति सृष्टाः ।
मानब दिन रात में १०८०० ( प्राण + अपान) लेता - छोड़ता है । वर्ष में मुहूत्तों
की संख्या भी १०८०० होती है । तदनुसार ऋग्वेद में जाती हैं और प्रति पंक्ति में ४० अक्षर होने से ऋग्वेद ४,३२००० ही बनेगी ।
१०८०० पंक्तियां मानी का अक्षर संख्या भी
२. एक पंचाशद् ऋग्वेदे गायत्र्यः शाकलेयके । सहस्रं द्वितयं चैव चत्वार्येव शतानि तु ॥ १॥
खंड २० अंक ४
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