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स्थानांग - आगम
( संख्या के अनुपात से द्रव्यों का विवेचन ) | निर्मला चोरड़िया
जैन द्वादशांगी में तीसरा आगम स्थानांग है । " स्थानांग" पद 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है । 'स्थान' शब्द अनेकार्थी है । आचार्य देववाचक' ने और गुणधर ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दस स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित हैं, इसलिए इसका नाम 'स्थान' रखा गया है । जिनदासगण महत्तर ने लिखा है - जिसका स्वरूप स्थापित किया जाय व ज्ञापित किया जाये वह 'स्थान' है।' आचार्य हरिभद्र ने कहा है जिसमें जीवादि का व्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया जाता है, वह स्थान है ।
प्रस्तुत आगम में तत्त्वों के एक से लेकर दस तक संख्या वाले पदार्थों का उल्लेख है, अत: इसे 'स्थान' कहा गया है । 'स्थान' शब्द का दूसरा अर्थ 'उपयुक्त' भी है । इसमें तत्त्वों का क्रम से उपयुक्त चुनाव किया गया है। स्थान 'शब्द' का तृतीय अर्थ 'विश्रान्ति स्थल' भी है और अंग का सामान्य अर्थ 'विभाग' है । इसमें संख्याक्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गई है । अतः इसका नाम स्थानांग है ।
आचार्य गुणधर ने स्थानांग का परिचय देते हुए लिखा है कि स्थानांग में संग्रह की दृष्टि से जीव की एकता का निरूपण है तो व्यवहारनय की दृष्टि से उसकी भिन्नता का भी प्रतिपादन किया गया है । संग्रहनय की अपेक्षा चैतन्य गुण की दृष्टि से जीव एक है । व्यवहार नय की दृष्टि से प्रत्येक जीव अलग-अलग है। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से वह दो भागों में विभक्त है । इस तरह की दृष्टि से जीव अजीव प्रभृति द्रव्यों की स्थापना की गई है । तत्त्व अनन्त भागों में विभक्त होता है और द्रव्य की दृष्टि से वे अनन्त भाग एक तत्त्व में परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार भेद और अभेद की दृष्टि से व्याख्या स्थानांग में
स्थानांग सूत्र में संख्या
पर्याय की दृष्टि से एक
है ।
स्थानांग में विषय को प्रधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी गई है। संख्या के आधार पर विषय का संकलन - आकलन किया गया है। एक विषय की दूसरे विषय के साथ, इसमें सम्बन्ध की अन्वेषणा नहीं की जा सकती । जीव, पुद्गल, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, आचार, मनोविज्ञान आदि शताधिक विषय बिना किसी क्रम के इसमें संकलित किये गए हैं । प्रत्येक विषय पर विस्तार से चिन्तन न कर संख्या
खंड २०, अंक ४
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