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________________ दिया। माता सीता इस दृश्य को देख रही थी। उन्होंने हनुमान को बुलाया और अपना नवलखा हार उसे प्रदान कर दिया। हनुमान ने हार को ले लिया। एक-एक मनके को दांतों से तोड़ता, देखता और फेंक देता । जब सीता ने यह दृश्य देखा तो पूछ लिया-अरे ! यह क्या कर रहे हो ? हनुमान ने कहा-माताजी ! देख रहा हूं इनमें राम का नाम है या नहीं। जिसमें राम का नाम नहीं वह मेरे क्या काम का ? __ अर्थात् भक्त वह होता है जो हर समय, हर स्थान पर अपने आराध्य को साक्षात् करना चाहता है। उसके लिए सम्पूर्ण सृष्टि ही प्रभुमय बन जाती है । इसीलिए किसी ने कहा है-“वे धन्य हैं जो दृढ़ श्रद्धालु हैं।" _भक्ति सर्वोच्च शक्ति है, भक्ति सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ है। भक्ति वही कर सकता है जो सौभाग्ययुक्त होता है। भक्ति आत्मविलय का नाम है, सम्पूर्ण समर्पण का अपर अभिधान है। क्योंकि वहां पर द्वैत सर्वथा समाप्त हो जाता है। कबीरदासजी के शब्दों में.- . .. . "जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि तब मैं नाही। प्रेम गली अति सांकरी, तामे दो न समाही॥ इसी प्रकार--- "सीस उतार मुंह धरे, तापर राखे पांव । दास कबीरा यों कहे, ऐसा होय तो आव ॥" जैनाचार्यों ने भी भक्ति पर विस्तार से प्रकाश डाला है। रत्तत्रय में परिगणित सम्यग्दर्शन भक्ति किंवा श्रद्धा का ही शब्दांतर मात्र है। ज्ञान और भक्ति के वारे में यदि अध्ययन करें तो ज्ञान छोटा पड़ जाता है, भक्ति उससे बहुत विस्तृत है। भक्ति में अटूट विश्वास रखने वालों ने तो यहां तक कह दिया कि 'जब बुद्धि की सीमाओं का अन्त होता है तब भक्ति अर्थात् श्रद्धा की सीमा का प्रारम्भ होता है । यही कारण है कि कोरा ज्ञानी व्यक्ति, केवल बौद्धिक व्यक्ति विद्वान् तो हो सकता है पर भक्त नहीं।' ज्ञान में अहं सम्भव है जो पतन का कारण होता है पर भक्ति अहं-विसर्जन का ही नाम है । भक्ति में अपना कुछ होता ही नहीं, फिर अहं किस बात का ? __ भक्ति में किसी समर्थ का सामर्थ्य भी जुड़ सकता है पर ज्ञान में ऐसा कुछ नहीं होता। भक्ति, श्रद्धा या दढ़ास्था ही वह सशक्त मार्ग है जो पतित से पतित का उत्थान कर देती है। बुरे से बुरे को भी श्रेष्ठ बना देती है। देव, दानव व मानवकृत हर उपद्रव में सुरक्षा देने वाला अमोघ मंत्र बन जाती है----भक्ति। तभी तो आचार्य मानतुंग कहते हैं -'त्वद्भक्तिरेवमुखरीकुरुते बलान्माम्'।' इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि भक्ति के प्रभाव से किस प्रकार असंभव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं। चन्दनबाला, जयदेव, अण्डाल, तुकाराम, एकनाथ आदि प्रभु भक्ति की नांव पर बैठकर संसार-सागर के उस पार चले गए। भक्त प्रह्लाद ने २६६ । तुलसी प्रज्ञा .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524582
Book TitleTulsi Prajna 1995 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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