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प्रेक्षा-ध्यान की वैज्ञानिकता'
बसमणी स्थितप्रज्ञा
भारतीय संस्कृति अध्यात्म से अनुप्राणित रही है । हमारे पूर्वज ऋषि-महर्षियों ने अपनी साधना का सिंचन देकर इसे पल्लवित और पुष्पित किया है। जैन-धर्म में चौबीस तीर्थंकरों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने विशिष्ट साधना एवं ध्यान के द्वारा ही केवलज्ञान प्राप्त किया था। अर्हत् दगभाली ने लिखा है
सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य ।
सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ।। अर्थात् मनुष्य का सिर काट देने पर उसकी मृत्यु हो जाती है, वैसे ही ध्यान को छोड़ देने पर धर्म चेतनाशून्य हो जाता है। जैसे मनुष्य की चेतना का केंद्र मस्तिष्क है, वैसे ही धर्म की चेतना का केंद्र ध्यान है।' भगवान् महावीर के समय में हजारोंहजारों मुनि एकांतवास में, पहाड़ों में, गुफाओं में, शून्यगृहों में, उद्यानों में ध्यानलीन रहते थे। उनके बाद भी दूसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक यह स्थिति चलती रही। उसके उत्तरार्द्ध में कुछ परिवर्तन आया । उस परिवर्तन के ये कुछ कारण बने ।
१. प्राकृतिक प्रकोप । २. राजनैतिक उथल-पुथल । ३. संघ सुरक्षा व लोक-संग्रह का आकर्षण ।
वीर निर्वाण के दो सौ वर्ष बाद एक द्वादशवर्षीय अकाल पड़ा। उस समय हजारों मुनि जो श्रुत के पारगामी थे, अनशन कर दिवंगत हो गये ।' इन कारणों का दीर्घकालीन परिणाम यह हुआ कि जैन संघ, जो ध्यान-प्रधान था वह स्वाध्याय प्रधान हो गया। जो अध्यात्मवादी था वह संघ प्रधान हो गया और धीरे-धीरे ध्यान की परम्परा विलुप्त हो गयी। प्रेक्षा-ध्यान क्यों
___ अणुव्रत अनुशास्ता गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के मन में वि० सं० २०१२ में यह प्रश्न उभरा कि जैन-साधकों की ध्यान पद्धति क्या है ?" गुरुदेव के मन में साधना विषयक नये उन्मेष लाने की बात आयी। 'कुशल साधना' इस नाम से कुछ अभ्यास-सूत्र निर्धारित किये गये और साधु-साध्वियों ने उनका अभ्यास शुरू किया। साधना के क्षेत्र में यह प्रथम रश्मि थी। उससे बहुत नहीं, फिर भी कुछ आलोक अवश्य मिला। उसके पश्चात् अनेक छोटे-छोटे प्रयत्न चलते रहे। गुरुदेव ने अपने शिष्य आचार्यश्री महाप्रज्ञ को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने आगमों में बिखरे हुए सड २०, बंक ३
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