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मार्कण्डेय पुराण में देवी शक्ति का स्वरूप
■ डॉ० (श्रीमती) मुन्नी जोशी
वैदिक वाङ् मय के वाक्सूक्त में जिस शक्ति के बीज का वपन किया गया, उसी का पौराणिक साहित्य में शाखाओं एवं प्रशाखाओं में अति विस्तार किया गया । इस सम्पूर्ण सृष्टि में इस शक्ति को अनुस्यूत बताया गया है तथा इसे सर्वश्रेष्ठ तत्त्व के रूप में मान्यता प्रदान की गई है । शक्ति का उल्लेख अधिकांश पुराणों में उपलब्ध होता है। देवी भागवत एवं मार्कण्डेय पुराण का प्रतिपाद्य विषय प्रमुख रूप से देवी स्वरूप ही है । तांत्रिक एवं वैदिक परम्परा के अनुयायी समभाव से देवी को अपनी आत्मा मानते हैं । सांस्कृतिक दृष्टि से भी देवी के विविध उपाख्यानों - विशेषकर, दुर्गा सप्तशती का अतीव महत्त्व है ।
पुराणों के धार्मिक तत्त्वों के निरूपण में शक्ति का निरूपण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। देवी के स्वरूप एवं पराक्रम पूर्ण कार्यों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि देवी ही आदि शक्ति है ।
सम्पूर्ण संसार को नियन्त्रित करने में इसी शक्ति को सक्षम माना है । इसी को माया एवं प्रकृति नाम से अभिहित किया है । शक्ति ही विश्वसारा, परम प्रधान प्रपञ्च की सारसर्वस्वभूत वस्तु है ।" आदि-शक्ति के सगुण-निर्गुण दो स्वरूप है । उपनिषदों में इसे पराशक्ति कहा गया है ।"
देवी का स्तवन
मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत देवी माहात्म्य का विशद् वर्णन है । सिद्धि के लिए जब यह देवी आविर्भूत होती है, तब नित्य होने में उत्पन्न मानी जाती है । विष्णु के तेज की, अतुल मूर्ति की हैं। ब्रह्मा द्वारा देवी की स्तुति की गई है । हे नित्ये ! तुम
मंत्र स्वाहास्वरूप हो। तुम पितरों के श्राद्धादि में स्वधारूप, तुम ही वषट्कार इन्द्र
के हविर्दान मंत्र के स्वरस्वरूप हो । तुम सुधास्वरूप अक्षरों रूप तीन मात्रास्वरूप हो । तुम प्रकृतिस्वरूप हो ।
में ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत
देवी त्रिगुण रूप में संसार को उत्पन्न करने वाली पोषण करने वाली, तथा संहार करने वाली हैं। महाविद्या, महामेधा, महामाया, महास्मृति, महामोहा, महादेवी है तथा चराचर जगत् की प्रकृति है । आदिशक्ति देवी का अवतरण समस्त देवताओं के एकीकरण स्वरूप हुआ है । भगवती देवी का हिमालय पर्वत से अवतरित होने का उल्लेख मिलता है ।'
खण्ड २०, अंक ३
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देवताओं की कार्यपर भी इस संसार देवगण वन्दना करते देवताओं के हवि देने के
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