SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरणों में पड़ गये हैं ऐसे दो बैलों को धरसेन भट्टारक ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न में देखा । इस प्रकार के स्वप्न को देखकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने "जयउ सुय देवदा" श्रुत देवता जयवंत हों ऐसे वचन का उच्चारण किया । उसी दिन दक्षिण पथ से भेजे हुए वे दोनों साधु धरसेनाचार्य के पास पहुंच गये । उसके बाद उन्होंने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि - " अणेण कज्जेणम्हा दोवि जणा तुम्हं पादमूलमुगवयाति ।" इस कार्य से हम दोनों आपके पादमूल को प्राप्त हुए हैं । उन दोनों साधुओं के इस प्रकार निवेदन करने पर "सुदवु भट्ट" अच्छा है, कल्याण हो इस प्रकार कहकर धरसेर भट्टारक ने उन दोनों साधुओं को आशीर्वाद दिया सेलsaण भग्यघड अहि चलणि महिसाऽवि - जाहय सुएहि । भट्टिय-मसय समाणं बक्खाणइ जो सुदं मोहा ॥ ६२ ॥ भगवान् धरसेन ने विचार किया कि शैलधन, भग्नघट, अहि (सर्प) चालनी, महिष, अवि (मेंढा), जाहक ( जोंक) शुक माटी और मशक के समान श्रोताओं को जो मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है द- गारव पडिबद्धो विसयामिस विस वसेण धुम्मंतो । सो भट्ट बोही-लाहो भमइ चिरं भव-वणे मूढो ॥ ६३ ॥ वह मूढ दृढ़ रूप से ऋद्धि आदि तीनों प्रकार के गौरवों के आधीन होकर विषयों की लोलुपता रूपी विष के वश मूच्छित हो अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है । इस वचन के अनुसार स्वच्छन्दतापूर्वक आचरण करने वाले श्रोताओं को विद्या देना संसार और भय को ही बढ़ाने वाला है। ऐसा विचार कर दोनों की परीक्षा लेने का निश्चय किया, क्योंकि उत्तम प्रकार से ली गई परीक्षा हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है - सुपरिक्खा हिय णिव्वुइ करोति । अतः धरसेनाचार्य ने दोनों को मन्त्र सिद्धि करने के लिए कह दिया। दोनों गुरु वचनानुसार विद्या सिद्धि करने के लिए वहां से निकल गये। दो दिन के उपवास के बाद विद्या सिद्ध हुई तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देवियों को देखा कि एक देवी के दांत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी का स्वभाव नहीं है ।" इस प्रकार दोनों ने शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाले मन्त्र में अधिक अक्षर वाले मन्त्र में से अक्षर निकालकर मन्त्र को देवियां अपने स्वभाव और सुन्दर रूप में उपस्थित दिखलाई पड़ीं । (अंधी ) है । "विकृतांग होना देवताओं विचार किया । मन्त्र-सम्बन्धी व्याकरण अधिक अक्षर मिलाकर और Jain Education International तत्पश्चात् गुरुवर धरसेन के समक्ष योग्य विनय सहित उन दोनों ने विद्या - सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृत्तांत को निवेदन किया । बहुत अच्छा "सुढृढ़ तुट्वेण" इस प्रकार संतुष्ट हुए धरसेन भट्टारक ने शुभ तिथि नक्षत्र आदि में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया । इस प्रकार क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान् से उन दोनों ने आषाढ़ खंड २०, अंक ३ १९५ पढ़ना प्रारम्भ किया तो दोनों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy