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________________ इससे कृति की उपयोगिता बढ़ गई है । उक्त सन्दर्भों में प्रयुक्त शब्दों की व्याकरण कठिन शब्दों की टीका, चूर्णि के आधार पर एक सूची इससे विद्यार्थियों को अध्ययन में काफी सुगमता हो द्वारा सिद्धि की गई है। भी अन्त में दी गई है। गई है। चरितकाव्य प्राकृत भाषा में गद्य-पद्य काव्यों की भी एक लम्बी श्रृंखला रही है । उसमें चरितकाव्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । प्राचीन जैन मनीषियों और कवियों ने अनेक काव्यों की रचना की । वर्तमान में तेरापंथ धर्मसंघ में यह विद्या भी उदीयमान स्थिति में है । 'ललियंग चरियं' मुनिश्री विमलकुमार की प्राकृत भाषा में निबद्ध रचना है । ऐतिहासिक और पौराणिक कथानक के आधार पर सरल, सुबोध प्राकृत भाषा में गुम्फित यह रचना भविष्य की गति प्रगति का शुभ संकेत देती है। राजकुमार ललितांग के जीवन चरित्र सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं पर इससे प्रकाश पड़ता है । अभ्यास रूप में लिखी गई यह रचना यह विश्वास पैदा करती है कि प्राकृत भाषा का स्रोत सर्वथा सूखा नहीं है । उसकी गति में मंथरता अवश्य आई है किन्तु उसे दूर करने की आशा की जा सकती है। इसी प्रकार बंकचूलचरियं, देवदत्ताचरियं, सुबाहुचरियं, मियापुत्तं और पए सिचरियं भी इसी कोटि की रचनाएं हैं । ये सभी अब तक अप्रकाशित है किन्तु प्रशिक्षुओं के लिए प्रेरक हैं। मुनि विमलकुमारजी का अध्यवसाय इनमें सहज मुखर होता है । तेरापंथ में संस्कृत और प्राकृत साहित्य के उद्भव और विकास की संक्षिप्त प्रस्तुति इस निबन्ध में हुई है और उपलब्ध साहित्य का यथासंभव परिचय देने का प्रयत्न किया गया है। विक्रम की बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और इकीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में तेरापंथ धर्मसंघ ने संस्कृत प्राकृत वाङ् मय को विभिन्न नये उन्मेष प्रदान किए हैं । अतीत के सिंहावलोकन के आधार पर अनागत का योग और अधिक मूल्यवान् हो सकेगा, ऐसी आशंसा स्वाभाविक है । बड़ २०, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only १९१ www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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