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काम क्रोध तृष्णा तजे, दुविधा देय उठाय ।
रामचरण ममता मिटे तेरापन्थ न पाय ॥ १९॥ अपने साहित्य में रामचरणजी ने तेरापन्थ शब्द को काम में लिया है। वहां उन्होंने अपनी ओर से तेरापन्थ शब्द की जो व्याख्या की है वह यह बतलाती है कि वे इस शब्द की मूल व्युत्पत्ति से परिचित थे।" "उपदेशरत्नकथाकोश" में संत रामचरण जी ने संत भीखणजी को स्नेह एवं आदरयुक्त भाव से याद किया है ।"
संत भीखणजी के हृदय में तात्कालिक साधुओं के जिन शिथिलाचारों व मिथ्याचारों ने विक्षोभ एवं निराशा का निर्माण किया उसी का परिणाम था कि वे कह उठे
वेराग्य घट्यो ने भेष बधियो, हाथ्यां रो भार गधा लदियो।
थक गया, बोझ दियो रालो, एहबा भेषधारी पंचम कालो ॥
संभवतः इसी प्रकार के विचार संत रामचरण के मन में भी मिथ्याचार के विरुद्ध गलता जी के मेले में साधुओं के शिथिलाचार को देखकर उठे होंगे।
रामस्नेही संतों की जीवनचर्या भी तेरापन्थी जैन मुनियों की जीवनचर्या के पर्याप्त निकट है तथा कई बातें मेल खाती हैं । यथा
१. मूर्तिपूजा में दोनों का ही विश्वास नहीं है । २. मंदिरों में निवास नहीं करते। ३. भिक्षा मांगकर उदरपूर्ति तथा भोजन को संगृहीत नहीं करना। ४. रात्रि के समय भोजन ग्रहण नहीं करना । ५. दोनों ही साधु अपरिग्रह का अभ्यास करते हैं। __ वह कम से कम सामान अपने पास रखते हैं। ६. दोनों ही ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं व धन के हाथ नहीं लगाते । ७. धातु पात्र का प्रयोग दोनों पन्थों के साधु नहीं करते । ८. दोनों ही पन्थों में स्वतन्त्र शिष्य बनाने पर रोक थी। सब शिष्य गुरु के ही __ माने जाते थे।"
दोनों सम्प्रदायों का आधार भिन्न होते हुए भी उपरोक्त साम्य यह सोचने को बाध्य करते हैं कि इन पन्थों में अन्तर्प्रभाव अवश्य रहे हैं और उसका कारण दोनों मतों के प्रतिपादकों की निकटता ही हो सकती है। शिक्षाएं
संत रामचरण एवं संत भीखणजी ने, जो संयोग से एक समय ही हुए, एक-सी विरागी मनःस्थिति वाले थे, समाज के एक ही वर्ग अर्थात् वैश्य वर्ग से थे, अपनी शिक्षाओं में कई समान बातें उन्होंने उपदेशों में कही हैं। रामचरणजी ने गुरु को अत्यधिक महत्त्व दिया व उन्हें ब्रह्मस्वरूप माना है । उनके अनुसार संसार रूपी सागर से गुरु ही पार उतार सकता है ।२२ संत भीखणजी भी इसी मत के थे । उनके मतानुसार सद्गुरु ही विनय करने पर मुक्ति की नींव अर्थात् आधार बताने की कृपा करता है । यथाखण्ड २०, अंक ३
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