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में इस सम्प्रदाय के रेण, शाहपुरा, सिंहथल व खेड़ापा में क्रमशः दरियावजी, रामचरण जी, हरिरामदासजी तथा रामदासजी द्वारा स्थापित ४ स्थल थे।'
डॉ० आर० पी० व्यास के मतानुसार खेड़ापा पीठ का रामस्नेही सम्प्रदाय में विशेष महत्त्व माना जाता है । डॉ. जयसिंह नीरज आदि लेखकों के मत से रामस्नेही सम्प्रदाय की चार नहीं अपितु तीन ही प्रमुख शाखाएं अथवा केन्द्र हैं। उनके विचार से प्रथम शाखा सिंहथल, खेड़ापा, द्वितीय रेण एवं तृतीय शाखा शाहपुरा है । इस सम्प्रदाय में रामस्नेही का शब्दार्थ राम का उपासक है पर वह राम दशरथपुत्र राम न होकर निर्गुण-निराकार ब्रह्म का परिचायक है ।' संत रामचरणजी
शाहपुरा रामस्नेही सम्प्रदाय शाखा के आदि प्रवर्तक सन्त रामचरण का जन्म १७१९ ई० में जयपुर राज्य के सोढा ग्राम में जहां कि उनका ननिहाल था, माघ शुक्ला चतुर्दशी शनिवार को हुआ।" उनके पिता का नाम बखतराम एवं माता का नाम देऊजी था। बखतराम जी मालपुरा के पास बनवाड़ी गांव के निवासी थे। इनका वंश विजयवर्गीय वैश्य कुल का था। जन्म के पश्चात् बालक का नामकरण रामकिशन अथवा रामकृष्ण किया गया।"
वय प्राप्त करते ही रामकिशन ने अपनी तीव्र बुद्धि का परिचय दिया तथा अपने पिता का कार्य सम्भाल लिया। इनकी विलक्षण बुद्धि एवं योग्यता की खबर जयपुर नरेश तक पहुंची। परिणामस्वरूप इन्हें जयपुर बुला लिया गया और कालांतर में ये मन्त्री बना दिए गए । परन्तु महान् आत्माओं का जन्म सांसारिक कार्यों के लिए नहीं होता, अत: एक जीवन की दिशा मोड़ने वाला स्वप्न इन्हें आया और ये मन्त्री पद छोड़कर मुक्त हो गए । जैन धर्म के श्वेतांबर पंथ में प्रसिद्ध स्थानकवासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक लौंकाशाह (१४१५ ई०) के जीवन में यही घटित हुआ था।१२
स्वप्न वाली घटना के समय रामकिशन की आयु २४ वर्ष की थी। तथा वे अपने पिता की मृत्यु के समय जयपुर से बनवाड़ी आए हुए थे। स्वप्न में दिखाई दिया कि वे नदी में बहे चले जा रहे हैं। कोई सहायक नहीं है। परन्तु इस संकट से उन्हें एक साधु बचाते हैं तथा नदी से बाहर निकाल लेते हैं। स्वप्न में देखे इन्हीं महात्मा को रामकिशन सच्चा सद्गुरु समझते हैं व वैराग्य लेकर इनकी खोज में निकल पड़ते हैं।" लम्बे समय तक गुरु की खोज में स्थान-स्थान पर भटकने के बाद भाग्य से मेवाड़ के एक ग्राम दांतड़ा में इनकी साध पूरी हुई तथा सच्चे गुरु के रूप में स्वामी कृपारामजी महाराज के दर्शन रामकिशन को हुए। इनकी ओर आकर्षित होने का कारण यह था कि इन सन्त की सूरत स्वप्न वाले महात्मा से मिलती थी। रामकिशन ने इनके चरण पकड़ लिए व दीक्षा की प्रार्थना की । १७५१ ई० की भाद्रपद शुक्ला ७, गुरुवार के दिन गुरु ने तारक मन्त्र से दीक्षा दी व इनका नाम रामचरण रख दिया।
गुरु की आज्ञा लेकर ज्ञानार्जन हेतु गूदड़ वेश में रामचरणजी ने सात वर्ष तक कठोर तपस्या की। सन् १७५८ ई० के गलता जी के मेले में सहस्रों साधुओं को विवेकहीन व्यवहार, नशा करना, जीव-जन्तु की रक्षा के प्रति दुर्लक्ष्य आदि बातें देख खण्ड २०, बंक ३
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