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भाव ने जहां नवीन उत्साह का निर्माण किया वहीं समाज में खिन्नता, हीन-भावना एवं निराशा का वातावरण भी बनाया । मध्यकाल तथा विशेषकर १८ वीं शताब्दी के भक्ति-आंदोलन को इस संपूर्ण परिस्थिति ने एक महत्वपूर्ण मोड़ दिया। इस आंदोलन का मुख्य स्वर समष्टिवादी, मिश्रित एवं समन्वयपरक था। यह एक अद्भुत सत्य था कि पूर्ववर्ती वैष्णव सन्तों के समान इस काल के राजस्थानी सन्तों ने “परमतत्त्व" को प्राचीन ग्रन्थों के प्रमाणों पर सिद्ध करने या उसकी व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं किया अपितु उनका "ब्रह्म" जो स्वानुभव मनन, चिन्तन, तपस्या एवं साधना से प्रकट हुआ था उसे ही प्राप्त किया गया ।
वैष्णव सन्तों की सगुण भक्ति-परम्परा का प्रतिनिधित्व राजस्थान में कई सन्तों ने किया जिसमें भक्तिमयी मीरां सबसे प्रमुख मानी जाती हैं। मीराबाई ने सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्धि पायी व सगुण भक्ति की रसधारा से पूरे भारतीय समाज को आप्लावित कर दिया। परन्तु पूर्व उल्लिखित कारणों से राजस्थान में निर्गुण भक्तों की एक अटूट शृंखला का भी निर्माण हुआ जो समाज के मूलाधार तक गहरी पैठ गई थी। निर्गुण भक्ति के अनेक सम्प्रदाय यहां पनपे जिन्होंने शांत रस, वैराग्य, निर्वेद आदि की भावभूमि अपनाकर पूजा, सेवा या भक्ति की बजाय ज्ञान व आचरण को अधिक महत्व दिया । समता, निःस्पृहता और सदाचार के मूल्यों की एक सुदृढ़ भित्ति तैयार की। निर्गुण भक्ति अथवा ज्ञान-मार्ग की यह बेल कहीं बाहर से लाकर यहां नहीं लगाई गई अपितु यहां की मिट्टी से ही उपजी थी।
जिस प्रकार उत्तर भारत में नानक एवं कबीर आदि सन्तों ने धर्म में पनपे कठमुल्लापन का विरोध कर निर्गुण भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया, उसी प्रकार राजस्थान में अनेक सन्तों ने इसी भावभूमि पर एक निराकर ईश्वर द्वारा बनायी इस सृष्टि को समता की दृष्टि से देखने का, लोकोपकार एवं अनासक्ति को ही धर्म के प्रमुख कर्तव्य के रूप में देखने का ज्ञानमार्गी उपदेश दिया। इन सन्तों के द्वारा प्रेरित पन्थ या सम्प्रदाय आज राजस्थान की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं की अनूठी पहचान बन गए हैं। इनका मूल स्वर एक निराकार, समदर्शी एवं सर्वव्यापी ईश्वर की भक्ति का है और जो वाणियां अथवा भजन गाये जाते हैं वे निर्गुण ब्रह्म के गुणानुवाद के रूप में ज्ञान-मार्ग के उपदेश हैं।
सन्त रामचरण इसी निर्गुण भक्ति परम्परा के एक ज्वाजल्यमान नक्षत्र हैं जिन्होंने रामानन्द की परम्परा को निरन्तरता प्रदान की एवं १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजस्थान में रूढ़िवादिता एवं धर्म के नाम पर ढकोसला तथा आडंबर को एक सक्षम चुनौती प्रदान की। रामस्नेही सम्प्रदाय के सन्त रामचरण ने जहां कबीर, दादू एवं अपने गुरु कृपाराम जी आदि से मूल प्रेरणा प्राप्त की, वहीं राजस्थान के लगभग सभी क्षेत्रों में फैले जैन धर्म से भी आप प्रभावित हुए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उनके समकालीन प्रसिद्ध श्वेतांबर जैन धर्म के स्थानकवासी पन्थ में दीक्षित स्वामी भिक्षु अथवा सन्त भीखण जी का सन्दर्भ दर्शनीय है।
रामस्नेही सम्प्रदाय सुधारवादी निर्गुण संतों का सम्प्रदाय है। १८ वीं शताब्दी १५८
तुलसी प्रज्ञा
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