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________________ के प्रसिद्ध कुमार-विहार में चैत्र और आश्विन माह के शुक्ल पक्ष के अन्तिम सप्ताह में यह उत्सव मनाया जाता । इस उत्सव के अन्तिम दिन सन्ध्या समय हाथियों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ में पार्श्वनाथ की सवारी निकाली जाती, जो नगर में होती हुई राजप्रासाद तक जाती थी। सवारी उत्सव में राजा के उच्च-अधिकारी, तथा प्रमुख नागरिकों सहित साधारण जनता भाग लेती थी। इस रथयात्रा उत्सव में चारों ओर जनसमूह नृत्य और गायन करते हुए साथ-साथ चलता था। अत्यन्त हर्षोल्लास के वातावरण में राजा स्वयं जाकर जिन-प्रतिमा की पूजा करता था। पार्श्वनाथ प्रतिमा को उत्सव के दूसरे दिन राज प्रासाद से वापस विशाल मैदान में लाया जाता। रथयात्रा के दूसरे दिन भी राजा स्वयं उपस्थित होकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा की पूजा अर्चना करता । इसके पश्चात् रथयात्रा नगर के प्रमुख मार्गों से होता हुआ पुनः अपने मूल स्थान पर ले जाया जाता । राजा स्वयं रथयात्रा उत्सव में व्यक्तिगत रूप से भाग लेता और अपने सामन्तों को भी इस उत्सव को समारोहपूर्वक मनाने का आदेश देता। ब्हलर महोदय का विचार है कि रथयात्रा उत्सव के दौरान कई बार समाज में तनाव भी उत्पन्न हो जाया करता। गुजरात के शासक रथयात्रा की स्वीकृति बड़ी कठिनाई से देते। किन्तु डॉ. सत्य प्रकाश इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि कुमार पाल चौलुक्य ने रथयात्रा उत्सव को कोई पहली बार प्रारम्भ नहीं किया था। यह परम्परा तो कुमारपाल के पूर्वजों के समय से ही विद्यमान थी।" राजस्थान में 'जिन' प्रतिमा की रथयात्रा के आभिलेखीय और साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं । अभिलेखों से ज्ञात होता है कि रथयात्रा उत्सव में तीर्थंकर की प्रतिमा को विशाल एवं ऊंचे रथ पर स्थापित कर उसकी शोभायात्रा निकाली जाती। इसमें लोग गीत गाते हुए एवं नृत्य करते हुए भाग लेते थे। इस समारोह हेतु धन की व्यवस्था राजा और प्रजा दोनों मिलकर करते थे। ओसियां के ११८८ ई० के लेख के अनुसार देवचन्द्र की पुत्रवधु तथा यशोधर की पत्नी एवं पालिया की पुत्री सम्पूर्ण श्राविका ने महावीर के रथ को रखने हेतु अपना निजि भवन दान दे दिया।" कक्कसूरी (१३३८ ई०) के 'नाभिनन्दन जिनोद्धार' नामक ग्रन्थ के अनुसार ओसियां में प्रतिवर्ष नर्दम नाम का स्वर्णरथ नगर में होकर एक बार निकाला जाता था। चौहान राजा जोज्जलदेव के नाडोल एवं सादड़ी अभिलेखों" (११४७ वि० सं०) से ज्ञात होता है कि उन दिनों लक्ष्मण स्वामी मन्दिर में यात्रा उत्सव मनाया जाता था। राजा ने इस यात्रा उत्सव पर आज्ञा प्रसारित की कि जब किसी सम्प्रदाय विशेष का यात्रा उत्सव हो तो उसमें अन्य मन्दिरों के गायक, कर्मचारी, शूलधारी (शूलपाल) आदि नये वस्त्र पहनकर एवं आभूषण धारण कर उसमें भाग लें। चाहे वे उस सम्प्रदाय विशेष में श्रद्धा न रखते हों। इसी अभिलेख में महाराज जोज्जलदेव ने अपने वंशजों को भी आदेश दिया कि वे उपर्युक्त परम्परा का भविष्य में भी पालन करते रहें । अभिलेख का प्रशस्तिकार लिखता है कि साधु, वृद्ध और विद्वान् भी इस यात्रा परम्परा के पालन में योगदान करें। यदि कोई व्यक्ति इस परम्परा का उलंघन करता है तो शासक का कर्तव्य होगा कि वह उसे रोके । आदिनाथ मन्दिर नाडलाई अभिलेख (११४३ ई.) के अनुसार जब महाराजाधिराज श्री रायपाल यहां रथयात्रा उत्सव में भाग लेने आए तब १५४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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