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________________ पोच तीर्थंकर तथा श्रीराम और श्रीकृष्ण के जीवन चरित्र इस काव्य में एक साथ निबद्ध हैं । उदाहरण के रूप में श्लेषालंकार से अर्थों का चमत्कार देखिए सहचरतया ये संजातास्तदा च-रणादिषु निरशनतया तेपि प्रापुर्भुवं हरशेखराम् । सुरसमुदितां सिन्धोः पारे भवस्य परम्पराक्रमणवशतो-लंकारागं प्रतीत्य महापदम् ।। -सप्त० ५७ ऋषभदेव पक्ष-उनके अनुगामी भी उपवास करने लगे और सामर्थ्य न रहने पर प्रभु को छोड़कर शंकर के सिर पर विराजमान गंगा तट पर चले गए जहां देवता थे। अन्य तीर्थकर पक्ष-व्रत ग्रहण करते समय उनके अनुचर व्रत ग्रहण करने लगे और संसार-संकट के जनक शरीर के विषय में राग का परित्याग कर उच्च भूमि पर पहुंच गए। राम पक्ष–वन गमन काल में जो राम का अनुगमन कर रहे थे वे वापस अयोध्या लौट आए और लंका में अनुराग रखनेवाले रावण के भय से लौट आए। कृष्ण पक्ष-युद्धादि के समय सहायक लोग जरासंध के युद्ध में 'श्रीकृष्ण की भेदनीति के कारण द्वारकापुरी पहुंच गए। अथवा श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग का अनुभव करके द्वारका पहुंच गए। . श्री जैन ने मेघविजयगणि के हवाले से श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा भी, सप्त सन्धान काव्य की रचना की जानी लिखी है किन्तु उसके प्राप्त न होने से उन्होंने सप्त सन्धान काव्य की द्विसन्धान-राघव पाण्डवीय काव्य से तुलना की है । सप्त सन्धान का मुख्य रस शांत है जबकि राघवपांडवीय वीररस का काव्य है। इसके अलावा सप्त सन्धान जैन परम्पराश्रित है और राघव पाण्डवीय नेतर परम्पराश्रित; फिर भी दोनों अपनेअपने अभीप्सित उद्देश्य में सफल हुए हैं। इस काव्य में दार्शनिक सिद्धांतों का उपस्थापन और आचार मीमांसा सम्बन्धी अणुव्रत, महावतादि का भी संक्षिप्त विवेचन है। इसे भी उजागर किया जाता तो अधिक समीचीन होता। किन्तु जैन साहब ने सप्त सन्धान काव्य का अध्ययन करने के साथ-साथ इस प्रकार के अन्य काव्यों का परिचय देने की चेष्टा की है । अध्ययन के शीर्षक में उन्होंने "सप्त सन्धानः", संयोजक चिह्न के स्थान पर विसर्गों का प्रयोग कर दिया जो खटकता है । किन्तु भौगोलिक, धार्मिक एवं दार्शनिक शब्दावली देकर उन्होंने इस काव्य का महत्त्व बढ़ाया है। अरिहन्त इण्टरनेशनल, दिल्ली ने इसे प्रकाशित कर पाठकों को उपलब्ध कराया; तदर्थ वे बधाई के पात्र हैं। ६. जिन वाणी के मोती -दुलीचन्द जैन, जैन विद्या अनुसन्धान प्रतिष्ठान, १८, रामानुज अय्यर स्ट्रीट, साहुकारपेट, मद्रास-७९, प्रथम संस्करण-१९९३, मूल्य ५०/- रुपये। २५२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524581
Book TitleTulsi Prajna 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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