________________
फिर क्यों नहीं प्रस्तुत प्रबन्ध में भाषा विज्ञानपरक अध्ययन को ही प्रमुखता दी गई; जैसा कि प्राक्कथन में डॉ० सत्यव्रत शास्त्री ने भी लिखा है-'जहां काव्य के अन्यपक्ष पर गहनता से विचार किया गया है वहां उसकी भाषा पर और अधिक सूक्ष्मता से विवेचन अपेक्षित है।
फिर भी मूल कथा में परिवर्तन का औचित्य, काव्य में रूढ़ि-वैचित्र्यवक्रता, पर्यायवक्रता, विशेषणवक्रता, संवृत्तिवक्रता, वृत्ति-वैचित्यवक्रता, लिंग वैचित्यवक्रता, क्रियावैचित्र्यवक्रता, कारकवक्रता, संख्यावक्रता, पुरुषवक्रता, उपसर्ग वक्रता, निपातवक्रता, उपचार वक्रता आदि के उदाहरणों की खोज, मुहावरों की पहचान, बिम्ब योजना में कवि द्वारा प्रयुक्त अमूर्त भावों की अभिव्यक्ति और काव्य के पात्रों का मानवीय चरित्र-विश्लेषण आदि द्वारा आराधनाजी ने जो शोध-साधना की है वह स्तुत्य है। उन्होंने अनायास ही जयोदय-महाकाव्य में रसज्ञ-पाठकों के लिए चिन्तनमनन के अनेकों नए आयाम खोल दिए हैं।
गेट अप, प्रस्तुति और मुद्रणादि अच्छा है। आचार्य ज्ञानसागर एवं आचार्य विद्यासागर के नयनाभिराम चित्र भी प्रकाशित किए हैं । पुस्तक संग्रहणीय है। ५. सप्त सन्धान काव्य-एक समीक्षात्मक अध्ययन
___-~-डॉ० श्रेयांस कुमार जैन, अरिहन्त इन्टरनेशनल, बी-५/२६३, यमुना विहार, दिल्ली-५३, प्रथम संस्करण, सन् १९९२, मूल्य-१५०/- रुपये।
जैन कवियों ने द्विसन्धान, चतुस्संधान, पंच सन्धान, सप्त संधान एवं चतुर्विशति सन्धान काव्य रचे हैं। महाकवि धनञ्जय का द्विसन्धान महाकाव्य सम्भवतः ऐसा प्रथम जैन महाकाव्य है । शांति राज कवि के एक पंच सन्धान काव्य की हस्तलिपि आरा में बताई गई है। इसी क्रम में १८ वीं शती के सुप्रसिद्ध कवि मेघविजय उपाध्याय का सप्त सन्धान महाकाव्य आता है जिस पर डॉ० श्रेयांस कुमार ने यह समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।
सन्धान-साहित्य, जैन संस्कृत साहित्य का गौरवपूर्ण अंग है, किन्तु इसका महत्त्व कम आंका गया है । कहते हैं कि सम्राट अकबर की विद्वत्सभा में जैनों के 'समस्त सुत्तस्स अणन्तो अत्थो' वाक्य का किसी ने उपहास किया। यह उपहास महोपाध्याय समयसुन्दर को बुरा लगा और उन्होंने "राजानो ददते सौख्यम्" इस आठ अक्षर वाले वाक्य के दस लाख बाईस हजार चार सौ सात अर्थ किए और वि० सं० १६४९ श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को जब अकबर कश्मीर जाते समय राजा श्री रामदास की वाटिका में रूका और वहां विद्वत्सभा लगी तो कविवर ने वहां अपना यह ग्रन्थ प्रस्तुत किया जिसे सुनकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। बाद में कवि ने उनमें योजना विरुद्ध लगने वाले अर्थों को निकालकर ग्रन्थ का नाम अष्टलक्षी रखा।
डॉ. श्रेयांस कुमार ने भी इस साहित्य का वास्तविक परिचय देने के लिए ही यह शोध प्रबन्ध लिखने की प्रतिज्ञा की है । ऐतिहासिक विवेचन सहित ऐसे ग्रन्थों का परिचय देकर उन्होंने इस सप्त सन्धान का कथावस्तु, वर्णन कौशल और साहित्यिक दृष्टि से परिशीलन किया है । ऋषभदेव, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर
खण्ड २०, अंक ३
२५१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org